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पारिवारिक सौहार्द

मानव समाज में पारिवारिक इकाई के अंतर्गत बच्चे युवा एवं बुजुर्ग तीन पीढ़ियों के लोग आते हैं। इन तीनों पीढ़ियों में आयु के अंतर के कारण सोंच में भी अंतर होता है। अक्सर सोंच का यह अंतर आपसी टकराव का कारण बन जाता है। सोंच में अंतर स्वाभाविक है। हर समय का अपना एक सामजिक परिवेश होता है। जो हर पीढ़ी में एक नई सोंच को जन्म देता है। विचारों में परिवर्तन आवश्यक भी है क्योंकि जिस समाज में परिवर्तन नहीं आता वहां ठहराव की स्तिथि पैदा हो जाती है। समाज बहती धारा की तरह होना चाहिए जिसमे समय के साथ साथ बदलाव आते रहे नहीं तो समाज मृतवत हो जाता है। परिवर्तन किसी समाज के जीवित होने की निशानी है। अतः विचारों का अंतर तो ठीक है किन्तु उसके कारण उपजने वाले मतभेद जो मनमुटाव का कारण बन जाते हैं चिंता का विषय हैं। आखिर ऐसी स्तिथि आती क्यों है। इसका कारण है एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने   का प्रयास न करना। बुजुर्गों को शिकायत रहती है की नई पीढ़ी गैरजिम्मेंदार एवं आत्म केन्द्रित है। उन्हें दूसरों की भावनाओं की कद्र ही नहीं। दूसरी तरफ युवाओं का कहना है की बुजुर्गों की सोंच दकियानूसी है। वो हमारे नज़रिए को स

धर्म की प्रासंगिकता

वर्तमान समय में धर्म के नाम पर लोगों में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। सभी अपने अपने धर्म को लेकर बहुत ही संवेदनशील हैं। अतः अक्सर धर्म के नाम पर लोगों में झगड़े हो जाते हैं।  धर्म के नाम पर पाखण्ड भी बढ़ता जा रहा है। अक्सर कुछ लोग जनता की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठा कर उन्हें ठग लेते हैं। धर्म के नाम पर एक उद्योग सा बनता जा रहा है। इसके अतरिक्त धर्म के नाम पर अनेक कुरीतियों का प्रचलन  है। धर्म भीरु लोग बिना उचित विवेक का प्रयोग किये उन कुरीतियों का पालन करते रहते हैं। अतः कुछ लोग जो स्वयं को इस धर्मान्धता से नहीं जोड़ पाते हैं अब धर्म की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न उठाने लगे हैं। प्रश्न उठता है की धर्म का अर्थ क्या है। क्या कुछ रीति रिवाजों का पालन ही धर्म है। धर्म व्यक्तियों को आत्मिक रूप से बलवान बनाने के लिए है या उन्हें कमज़ोर बनाने के लिए। सबसे ऊपर क्या सच में हमें धर्म की आवश्यकता है। धर्म एक जीवन शैली है जो समाज को एक व्यवस्था प्रदान करती है। प्रत्येक कर्म जो हमारे आत्मिक विकास में सहायक हो, जो हमें एक उत्तम व्यक्ति बनाये, जो हमें हमारे जीवन के परम लक्ष्य ' ईश्वर'

पूर्ण समर्पण

ईश्वर अनुभूति का विषय है न की वाद विवाद का अतः ईश्वर तक पहुँचने का सर्वोत्तम मार्ग है पूर्ण समर्पण का भाव। पूर्ण समर्पण केवल प्रेम से ही संभव है। प्रेम की वह परम स्तिथि जहां व्यक्ति संसारिकता को त्याग कर सिर्फ प्रभु चरणों में स्वयं को समर्पित कर देता है भक्ति कहलाती है। भक्ति का प्रारंभ ईश्वर के प्रति आकर्षण से होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे सांसारिक प्रेम का आरम्भ प्रेमी के प्रति आकर्षण से होता है। व्यक्ति निरंतर ईश्वर का चिंतन करता है। यह निरंतर चिंतन ही प्रेम का आधार बनता है। व्यक्ति का हर प्रयास ईश्वर को प्रसन्न करने का होता है। ईश्वर का पूजन अर्चन करना, उन्हें स्नान कराना, भोग अर्पित करना इत्यादि द्वारा वह ईश्वर की सेवा करता है। यह तो प्रारंभिक अवस्था के लक्षण हैं। चरम अवस्था तो तब आती है जब व्यक्ति बृज की गोपियों की भांति अपना सर्वस्व ईश्वर को अर्पण करने को तत्पर हो जाता है। जिनके लिए कृष्ण को प्रसन्न रखने के अतिरिक्त को और प्रयोजन नहीं था। उन्हें लोक निंदा तक की परवाह नहीं थी। धीरे धीरे वह स्तिथि आ जाती है जहाँ समस्त संसार ईश्वरमय  लगने लगता है। यही भक्ति की अंतिम स्तिथि है