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निश्चित लक्ष्य

हम में से बहुत जीवन में कुछ बड़ा करना चाहते हैं किन्तु भ्रमित रहते हैं की क्या करें। क्योंकि हम अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करते हैं। जीवन में एक निश्चित लक्ष्य का होना अत्यंत आवश्यक है। बिना निर्धारित लक्ष्य के हमारी शक्तियां निरर्थक कार्यों में बेकार चली जाती हैं। लक्ष्यविहीन व्यक्ति सागर में भटकती उस नौका की तरह होता है जिसका कोई खेवनहार नहीं होता है और जो समुद्र के थपेड़ों में इधर से उधर भटकती रहती है। इस दृष्टि से लक्ष्य हमारी जीवन रुपी नाव का खेवनहार होता है जो उसे सही दिशा प्रदान करता है। निश्चित लक्ष्य होने पर व्यक्ति अपनी क्षमताओं का सही प्रयोग कर सकता है। क्योंकि वह जानता है की उसे कहाँ जाना है। उसका लक्ष्य उसे प्रेरित करता रहता है। अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए वह हर आवश्यक कदम उठाता है। निश्चित लक्ष्य  मष्तिष्क को एक बिंदु पर केन्द्रित करने में मदद करता है। मष्तिष्क तभी अपनी पूर्ण क्षमता का प्रयोग करता है जब वह एक बिंदु पर केन्द्रित रहता है। अन्यथा उसकी सारी शक्ति इधर उधर भटकने में चली जाती है। हम सभी में असीम क्षमताएं हैं। जो हमारे भीतर सुप्तावस्था में

जीवन का लक्ष्य

इस सृष्टि के दो प्रमुख अंग हैं  प्रकृति  जीव  प्रकृति जड़ स्वरुप है जबकि जीव चेतन स्वरुप। दोनों ही प्रकृति एवं जीव काल से बंधे हैं। काल का चक्र अनवरत चलता रहता है। दोनों प्रकृति और जीव इसकी गति के साथ साथ कर्म में लगे रहते हैं। प्रकृति के क्रिया कलाप जैसे ग्रह नक्षत्रों का संचालन, ऋतुओं का परिवर्तन अबाध गति से चलता रहता है। प्रकृति की भांति जीव भी अपने कर्मों में संलग्न हैं। इन कार्यों द्वारा जीव स्वयं के शरीर का पोषण करता है, आत्म रक्षा करता है, शरीर को नई उर्जा देता है एवं संतान उत्पन्न करता। दूसरे शब्दों में आहार, निद्रा, आत्मरक्षा एवं मैथून ये चार लक्षण प्रत्येक जीव में पाए जाते हैं। प्रकृति और जीव दोनों का ही नियंता ईश्वर है। काल भी उसके आधीन है। ईश्वर अनादि और अनंत है। वह सत चित आनंद रूप है। इस सृष्टि के समस्त चर एवं अचर प्राणियों का पिता ईश्वर ही है। ईश्वर की अनुभूति तीन रूपों में होती है  सर्वव्यापी शक्ति के रूप में जो कि प्रकृति के कण कण में व्याप्त हैं।   परमात्मा के रूप में जो सभी जीवों के ह्रदय में निवास करते हैं और एक मित्र की भांति दिशा निर्देश करते हैं।