संदेश

मार्च, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अक्षमता में असीम क्षमता

चित्र
'आप जैसे हैं वैसे ही स्वयं को स्वीकार करें और खुद से प्यार करें. आपके जीवन में प्रगति आएगी. साहस के साथ जिएं. यह गुण आपके भीतर है जो कई बार उनमें भी नही होता जो सामान्य हैं.' यह संदेश है साई पद्मा का उन लोगों के नाम जो शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. साई स्वयं पोलियो की शिकार हैं किंतु वह शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के उत्थान का सराहनीय काम कर रही हैं. वह एक लेखिका, गायिका तथा समाजिक कार्यकर्ता हैं. उनकी कविताओं का संग्रह Life के नाम से प्रकाशित हो चुका है. अपनी गायन क्षमता का उपयोग कर साई विभिन्न सामाजिक कार्यों के लिए Fund जुटाती हैं. Disability in India विषय पर उनके लेख ILO Journal India Disability Journal तथा Indian Women online में प्रकाशित हो चुके हैं. आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय से इन्होंने M.com तथा Bachelor of Law की Degree प्राप्त की है. आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय से ही साई ने MBA Finance किया है. इन्होंने CA Intermediate की परीक्षा पास कर ली किंतु Spinal cord surgery के कारण Final नहीं कर सकीं. इसके अतिरिक्त इन्होंने Indian Classical Music में Diploma भी कि

'आशा' दूत

चित्र
शिक्षक का कार्य छात्रों को शिक्षा देना है. किंतु प्रो. संदीप देसाई एक ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने केवल अपनी कक्षा के छात्रों को ही शिक्षित करने का काम नही किया अपितु इनके प्रयासों से कई गरीब व उपेक्षित बच्चों के जीवन में शिक्षा का उंजियाला फैल रहा है.  उनका मानना है कि विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ दान है. प्रो. देसाई मुंबई की लोकल ट्रेनों में एक जाना पहचाना चेहरा हैं. हाथ में प्लास्टिक का डब्बा लेकर वह ट्रेनों में घूम घूम कर लोगों से दान मांगते हैं जिससे वह गरीब उपेक्षित बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोल सकें. पिछले छह सालों में वह इस काम के लिए लगभग एक करोड़ रुपये एकत्रित कर चुके हैं. इन पैसों से यह पांच स्कूल चलाते हैं. इनमें से दो राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में, एक महाराष्ट्र के यवतमाल में तथा एक एक सिंधुदुर्ग तथा रत्नागिरी में हैं. प्रो. देसाई का कहना है कि यह सब लोकल ट्रेन के उन मुसाफिरों कें कारण संभव हुआ है जिन्होंने इस काम के लिए दिल खोल कर मदद की.  कई लोग उन्हें झूठा तथा धोखेबाज़ कहते हैं तो कुछ भिखारी कह कर उनका उपहास करते हैं. दो बार उन्हें लोकल ट्रेन में भीख मांगने

सपनों की परवाज़

चित्र
आपके पास साधन कितने हैं यह उतना मायने नहीं रखता है जितना कि यह बात कि आप उनका प्रयोग किस प्रकार करते हैं. यदि आप के भीतर आगे बढ़ने की आग है तो साधनों की कमी आपकी राह में बाधा नहीं बन सकती. सपने जो आपको सोने ना दें अवश्य पूरे होते हैं.   श्रीकांत पंतवाने इसका उदाहरण हैं. इनके पिता सुरक्षा गार्ड की नौकरी करते थे. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. अतः पिता को सहयोग देने के लिए श्रीकांत सामान पहुँचाने (Delivery boy) का काम करते थे. बाद में इन्होंने अॉटो रिक्शा चलाना शुरू कर दिया. इसके बावजूद भी उनका कुछ कर दिखाने का हौंसला कम नही हुआ. एक बार जब वह कुछ सामान पहुँचाने हवाई अड्डे गए थे तो कुछ कैडेट्स के साथ हुई बातचीत से इन्हें पता चला कि पॉयलट बनने के लिए भारतीय वायुसेना में भर्ती होने की आवश्यक्ता नही है. इसके लिए पॉयलट ट्रेनिंग की जरूरत होती है. हवाई अड्डे के बाहर एक चाय विक्रेता ने श्रीकांत को DGCA के पॉयलट छात्रवृत्ति के बारे में बताया.  श्रीकांत बाहरवीं की परीक्षा की तैयारी में जुट गए ताकि अच्छे अंक लाकर छात्रवृत्ति प्राप्त कर सकें. बाहरवीं की परीक्षा पास कर उन्होंने मध्यप

चुनौतियों के पार

चित्र
जीवन में अनेक चुनौतियां आती हैं किंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इनसे घबराने के बजाय इनके पार चले जाते हैं. कार्तिक चंद्रशेखर एक ऐसे ही व्यक्ति हैं. Cerebral Palsy से ग्रसित कार्तिक श्री चक्र नामक Library के मालिक हैं.  कार्तिक ने अपनी दसवीं तक की पढ़ाई विद्यासागर से की. इसके बाद  Lady Andal School चेटपेट से उन्होंने आगे की पढ़ाई की. Loyola college से अंग्रेजी साहित्य में Degree ली. साथ ही साथ इन्होंने Media presentation में Ad-on course भी किया.  अंग्रेजी तथा इतिहास विषय में MA किया. मेधावी कार्तिक ने  M.Phil  English किया जिसमें इनके शोध का विषय R K narayanan की प्रसिद्ध पुस्तक 'Swami and his friends नें बचपन का चित्रण था. अपनी शारीरिक चुनौतियों के बावजूद इन्होंने शैक्षणिक स्तर पर इतनी उपलब्धियां प्राप्त कीं.  उत्साह से भरे कार्तिक अपने लिए एक नौकरी तलाशने लगे. जहाँ भी वह जाते लोग उनकी शैक्षणिक योग्यताओं से प्रभावित तो होते किंतु उनकी शारीरिक चुनौतियों के कारण उन्हें नौकरी नहीं देते. हर बार इस प्रकार नकारे जाने के कारण कुछ हताश हुए किंतु शीघ्र ही इन्होंने अपने शौक को

हम किसी से कम नही

चित्र
'सदैव उन लोगें के बारे में सोंचें जिनके कष्ट आप से अधिक हैं. जो जीवन आपको मिला है उसे सही मायनों में उपयोग करें.'   इसी फलसफे को अपने जीवन में उतारा है निष्ठा ठाकेर आनंद ने. स्वयं Muscular Dystrophy नामक बीमारी का शिकार निष्ठा शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को एक ऐसा जीवन प्रदान करने में सहायता करती हैं जहाँ वह आत्मसम्मान के साथ समाज में रह सकें. निष्ठा का जन्म 23 दिसंबर 1973 में छत्तीसगढ़ प्रदेश के रायपुर में हुआ था. इनकी परवरिश गुजरात के जुनागढ़ में हुई. 11 साल की उम्र में इन्हें अपनी बीमारी का पता चला. इस छोटी सी उम्र में यह एक बड़ा आघात था. सन् 1985 में Bombay hospital मुंबई के डॉ. B S Singhal ने जांच करके बताया कि निष्ठा Charcot Merrie Tooth नामक बीमारी से ग्रसित हैं जो कि Muscular Dystrophy की तरह ही है. इसके कारण शरीर के Muscles कमजोर पड़ जाते हैं. इससे शारीरिक गतिविधियों में परेशानी आती है. इन्हें जो भी दवाइयां तथा इलाज बताया गया उसका कोई नतीजा नही निकला. अतः हताश होकर निष्ठा ने तय किया कि वह आगे कोई औषधि नही लेंगी. 10th के बाद निष्ठा के पिता नहीं रहे. डेढ़ साल वह ब

किताबों की दुनिया

चित्र
लखनऊ के मशहूर इलाके हजरतगंज की मेफ़ेयर बिल्डिंग में स्थित ' राम अडवाणी बुकसेलर्स ' पुस्तक प्रेमियों की पसंदीदा जगह है. किताबों की इस दुनिया को बसाने में श्री राम अडवाणी जी की मेहनत और लगन लगी है.  विभाजन पूर्व कराची में जन्मे राम अडवाणी जी अपने परिवार के साथ 1920 में लखनऊ आए. पुस्तकों से इनके परिवार का पुराना नाता था. Ray's bookshop के नाम से लाहौर में इनकी पुस्तकों की दुकान बहुत मशहूर थी. इसकी शाखा रावलपिंडी और नैनीताल में थी. कॉटन बिशप स्कूल शिमला में पढ़े राम अडवाणी रस्किन बॉन्ड के सहपाठी रहे थे. उसी समय से साहित्य के प्रति इनका रूझान रहा. अपनी परास्नातक की डिग्री लेने के बाद इन्होंने भी Bookstore खोलने का निश्चय किया. सन् 1948 में गांधी भवन में इन्होंने अपना Bookstore खोला. किंतु कुछ कारणों से 1951 में इसे मेफेयर बिल्डिंग में हस्तांतरित किया गया. Ram Advani Bookseller उन सभी की पसंदीदा जगह रही है जिन्हें साहित्य और परिचर्चा में दिलचस्पी रही है. यहाँ साहित्य से लेकर राजनीति सभी विषयों पर चर्चा होती थी. यहाँ विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं. खासकर लखनऊ के

सच हुए सपने

चित्र
भले ही आंखें देख ना सकें किंतु सपने अवश्य देखने चाहिए क्योंकी उनका पूरा होना आपके हौंसले पर निर्भर करता है. इस बात को सच कर दिखाया है तमिलनाडु की बेनो ज़ेफाइन ने. बेनो पहली पूर्णतया नेत्रहीन व्यक्ति हैं जिन्हें Indian foreign services IFS के लिए चुना गया है. IFS के लिए चुने जाने से पहले बेनो SBI में Probationary Officer के पद पर काम कर रही थीं. IAS की परीक्षा पास कर लेने के बाद बेनो अपनी नियुक्ति की प्रतीक्षा कर रही थीं. UPSC के साक्षात्कार में उनसे पूंछे गए अधिकांश प्रश्न विदेशी नीति से संबंधित थे. अतः अपनी नियुक्ति का एक हल्का सा अनुमान उन्हे लग गया था किंतु इससे पूर्व पूर्णतया नेत्रहीन व्यक्ति को IFS में नियुक्ति नहीं मिली थी. बेनो की नियुक्ति एक क्रांतिकारी कदम है. इसके लिए वह केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार की शुक्रगुज़ार हैं. IFS officer के तौर पर अपने कार्य को लेकर बेनो बहुत उत्साहित है. मद्रास विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में परास्नातक बेनो स्कूल तथा कालेज में वाद विवाद प्रतियोगिता तथा अन्य गतिविधियों में भाग लेती रही थीं. उनके पिता ल्यूक एन्थनी चार्ल्स रेलवे कर्मचारी तथा

अनाथों की ' माई '

चित्र
स्वयं परेशानियों को झेलने के बावजूद भी दूसरों के दुख के बारे में सोंचना एक असाधारण व्यक्तित्व की निशानी है. ऐसे हीे असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं सिंधूताई सकपाल.  इन्होंने स्वयं के जीवन में जिन कठिनाइयों का सामना किया वह किसी को भी तोड़  सकती थीं. उनके मन को कड़वाहट से भर सकती थीं.  किंतु हिम्मत की धनी सिंधूताई ने अनाथ बच्चों का जीवन संवारने का बीड़ा उठाया. वह भी तब जब उनके सामने दो वक्त के खाने का संकट था. उन्होंने अनाथ बच्चों को ना सिर्फ अपनाया बल्कि उन्हें इस लायक बनाया कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सकें. आज वह 1400 के करीब अनाथ बच्चों की माई हैं जिनमें से बहुत डॉक्टर इंजीनियर या अन्य उच्च पदों पर हैं. 14 नवंबर 1948 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के पिंपरी मेघे गांव में जन्मी सिंधूताई एक अनचाही संतान थीं. उन्हें चिंदी नाम दिया गया अर्थात् कतरन जो किसी काम की ना हो. वह पढ़ना चाहती थीं किंतु परिवार की गरीबी के कारण अधिक ना पढ़ सकीं. मात्र 10 वर्ष की उम्र में उनका विवाह 30 वर्ष के व्यक्ति से हो गया जो उन्हें मारता पीटता था. बीस साल की आयु में वह तीन बेटों की माँ बन गईं. इतने पर भ

शिक्षा की मशाल

चित्र
शिक्षा की मशाल ही समाज में व्याप्त अज्ञानता के अंधकार को मिटा कर रूढ़ियों की बेड़ियों से इसे मुक्त करा सकती है. यदि यह मशाल लड़कियों ने थाम रखी हो तो यह और भी शुभ संकेत है.  वाराणसी से तकरीबन 15 Km. दूर स्थित सोजोई गांव ऐसी ही एक मिसाल पेश कर रहा है.  मुस्लिम बाहुल यह गांव बुनकरों का है. इस गांव की तीन बेटियां गांव में शिक्षा का उजाला फैला रही हैं. तबस्सुम तरन्नुम और रूबीना बानो. शिक्षा का महत्व समझते हुए इन्होंने तमाम मुसीबतों को झेलते हुए स्वयं को शिक्षित बनाया. इस काम में परिवार वालों तथा अन्य लोगों ने इनकी सहायता की. किंतु स्वयं को शिक्षित कर लेना ही इनका मकसद नहीं था. तीनों चाहती थीं कि गांव में शिक्षा को लेकर जागरूकता आए तथा आने वाली पीढ़ी निरक्षर ना रहे.  गांव में स्कूल छोड़ देने वालों की संख्या अधिक थी. लड़कियों की शिक्षा पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता था. तीनों लड़कियां इस माहौल को बदलना चाहती थीं. तभी Human Welfare Association HWA   नामक NGO इसी उद्देश्य से इनके गांव में आया. तीनों उसकी Volunteer बन गईं. गांव के बंद पड़े मदरसे में.बच्चों की शिक्षा का प्रबंध किया गया