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जुलाई, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

16 साल का उपवास

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किसी भी सामाजिक आंदोलन में मानवीय अधिकारों की रक्षा तथा अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का शांतिप्रिय तरीका उपवास है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध कई उपवास रखे. 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी लड़ाई में उपवास को ही हथियार बनाया. आए दिन हम किसी ना किसी मुद्दे पर होने वाले उपवासों के बारे में सुनते रहते हैं.  इरॉम शर्मिला ने भी नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु उपवास रखा किंतु यह उपवास 16 वर्ष लंबा रहा. 2 नवंबर 2000 को आरंभ हुआ उनका अनशन 9 अगस्त 2016 को समाप्त होगा. यह विश्व का सबसे लंबा चलने वाला उपवास है. इरॉम चानू शर्मिला का जन्म 14 मार्च 1972 को मणिपुर में हुआ था. भारत के उत्तरपूर्व में स्थित मणिपुर में कई सालों से आपातकाल जैसे हालात हैं. इससे निपटने के लिए 1958 में भारत सरकार ने वहाँ AFSPA (Armed Forces Special Powers Act) लागू किया. इसके अंतर्गत सशस्त्र बलों को बिना Warrant के किसी के भी घर की तलाशी लेने तथा किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार है. इसके चलते कई निर्दोष लोगों को भी कष्ट पहुँचा है.  इरॉम मणिपुर मे

मुक्ति के लिए आंदोलन

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इक्कीसवीं सदी में जब हम देश के विश्व शक्ति बनने का सपना देख रहे हैं वहीं हमारे समाज में कुछ लोग अभी भी सर पर मैला ढोने (मल को सर पर रख कर ले जाने) को मजबूर हैं. उन्हें समाज के भेदभाव पूर्ण रवैये को झेलना पड़ता है. इन लोगों की सुनवाई करने वाला भी कोई नही होता है. शहर में रहने वाले अधिकांश लोगों को लगता है कि ऐसी कोई प्रथा आज भारत में जीवित नही है. जबकी कई जगहों पर आज भी यह प्रथा कायम है. इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज़ उठाने तथा इस काम से जुड़े लोगों के हितों के लिए लड़ने का काम कर रहे हैं 'बेज़वाड़ा विल्सन'. अपने इस काम के लिए इन्हें 27 जुलाई 2016 को प्रसिद्ध  रेमन मैगसेसे सम्मान { Ramon Magsaysay Award} देने की घोषणा की गई है. बेज़वाड़ा का जन्म 1966 में कर्नाटक में हुआ था. इनके माता पिता सफाई कर्मचारी थे व मैला ढोने का काम करते थे. इस प्रथा से मुक्ति पाने के उद्देश्य से उन्होंने बेज़वाड़ा को पढ़ने के लिए भेजा. किंतु यहाँ उन्हें सहपाठियों के उपहास व भेदभाव से पूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा. स्नातक होने के बावजूद भी बेज़वाड़ा को किसी और काम के योग्य नही समझा गया. इस बात से

रक्तदान द्वारा जीवन की रक्षा

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रक्त की हर बूंद में जीवन दायिनी शक्ति होती है. आपातकाल में यदि रक्त ना मिल पाए तो जीवन खतरे में पड़ जाता है. इसीलिए कहते हैं कि 'रक्तदान' है 'महादान' . इसी मूल मंत्र को अपने जीवन में उतारा है मुंबई निवासी प्रकाश नदार ने. प्रकाश अब तक 77 से भी अधिक बार रक्तदान कर चुके हैं. वह 90% शारीरिक रूप से विकलांग हैं. किंतु उनकी शारीरिक अवस्था कभी उनके उद्देश्य में बाधा नही बनी. प्रकाश का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. बचपन में ही वह पोलियो का शिकार हो गए. लेकिन हिम्मत के धनी प्रकाश ने कभी भी अपनी शारीरिक दशा से हार नही मानी. प्रकाश ने Society for Education for the Crippled द्वारा चलाए जा रहे विशेष बच्चों के स्कूल से शिक्षा प्राप्त की.  प्रकाश ने जब अपने पिता को सही समय पर रक्त ना मिल पाने के कारण दम तोड़ते देखा तो रक्तदान को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया. इन्होंने एक NGO के साथ मिल कर लोगों में रक्तदान के प्रति जागृति फैलानी आरंभ कर दी. इन्होंने रक्तदान के लिए कई शिविर आयोजित किये. स्वयं आगे आकर रक्तदान किया तथा दूसरों को भी प्रोत्साहित किया. Federa

लेखन मेरे लिए जीवन है

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डॉ. (श्रीमती) नीरज सुधांशु एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं. वह एक लेखिका, प्रसुति और स्त्री रोग विशेषज्ञ एवं एक प्रकाशन हाउस की स्वामिनी हैं. लेकिन लेखन उनके लिए प्राण वायु की तरह है जिसके बिना वह जीवन की कल्पना भी नही कर सकती हैं. बचपन से ही लेखन उनका प्रिय कार्य रहा है. आरंभ कविताओं से हुआ. इसके पश्चात लेखन की हर विधा में महारत हांसिल कर ली. कविता,गीत,दोहे,ग़ज़ल,निबन्ध,व्यं ग. मेडिकल लेखन इत्यादि वह विधाएं हैं जिनमें वह लिखती हैं. आस पास के वातावरण से प्रभावित होकर वह विषयों का चयन करती हैं. इनके द्वारा लिखी कविताएं, कहानियां, लेख, व्यंग राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं. इनके द्वारा संपादित रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है. इनमें प्रमुख हैं व्यंग्य संग्रह (आदमी कहीं का) ग़ज़ल संग्रह (सूर्योदय हुआ)  कविता संग्रह (मोती की खोज) (उपासना के द्वार से) लघुकथा संग्रह (बूंद बूंद सागर) मैं के इर्द गिर्द (1111-दोहे) इनकी लिखी पुस्तक है आँसू लावनी (111-नाटक छंद में मुक्तक) आकाशवाणी नजीबाबाद से समय समय पर डॉ. नीरज सुधांशु जी की वार्ताओं का प्रसारण भी होता रह

हुनर से आत्मसम्मान

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चित्रकारों का ऐसा समूह जिसने अपने हुनर के माध्यम से आत्मसम्मान के साथ रहने का रास्ता निकाला है. अपने द्वारा बनाए गए Greeting cards, calendars, print and illustrated books की बिक्री कर यह कलाकार अपनी अजीविका कमाते हैं. यह समूह अपने आप में नायाब है. इसके सभी सदस्य अपने चित्र मुंह या पैरों के बीच ब्रश फंसा कर बनाते हैं. किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण अपने हाथों का प्रयोग करने में असमर्थ हैं. इस समुदाय का नाम है The Mouth and Foot Painting Artists Association (MFPA) . यह एक Registered for profit संस्था है जिसमें 74 देशों के 800 से अधिक कलाकार जुड़े हैं. इसमें भारत के विभिन्न प्रांतों के 20 से अधिक चित्रकार शामिल हैं. MFPA की स्थापना 1956 में की गई थी. इसकी स्थापना का श्रेय ऐरिक स्टैगमान को जाता है. जर्मनी में जन्मे ऐरिक पोलियोग्रस्त होने के कारण अपने दोनों हाथों का प्रयोग करने में असमर्थ थे. अपने मुंह में ब्रश फंसा कर यह सुंदर चित्र बनाते थे. इस कला के जरिए इन्होंने बहुत नाम तथा धन  अर्जित किया. इन्होंने विचार किया कि क्यों ना अपने जैसे अन्य चित्रकारों का समूह बनाया जाए. जि

एक किसान जो दे रहा है नेत्रहीनों को रौशनी

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समाज के लिए कुछ करने के लिए साधनों से अधिक इच्छा का होना आवश्यक होता है. यह बात साबित कर दिखाई है छत्तीसगढ़ राज्य के अमिलडिह गांव के निवासी बरुन कुमार प्रधान ने.  बरुन नेत्रहीन बाल विद्या मंदिर नाम से एक स्कूल चलाते हैं जहाँ नेत्रहीनों को शिक्षा की रौशनी प्रदान की जाती है. यह शिक्षा उन्हें निशुल्क दी जाती है. यही नही अति निर्धन परिवारों से आने वाले बच्चों को आश्रय भी प्रदान किया जाता है. इस स्कूल की स्थापना के पीछे बरुन का उद्देश्य नेत्रहीन बच्चों को स्वावलंबी बनाना है. कक्षा 6 तक चलने वाले इस स्कूल में विद्यार्थियों को ब्रेल लिपि के माध्यम से उत्तम शिक्षा प्रदान की जाती है. स्वावलंबी बनाने हेतु उन्हें विभिन्न प्रकार के कौशल भी सिखाए जाते हैं. इस स्कूल के पांच शिक्षक जिनमें एक दंपत्ति भी है नेत्रहीन हैं. बरुन की बेटी हिमानी भी स्कूल के संचालन में सहायता करती हैं.  बिना किसी सरकारी सहायता के चलने वाला यह स्कूल 2014 में अपने प्रारंभ से ही लोगों को आकर्षित करता रहा है. कई अन्य लोग भी इसकी सहायता के लिए आगे आए हैं.  यह स्कूल नेत्रहीन बच्चों के लिए एक उम्मीद है. यहाँ पढ़ने वाले विद्यार

एक बुनकर जो देश को बना रहा है 'डिजिटली' साक्षर

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कहते हैं जो समय की नब्ज़ को पहचान कर उसके साथ स्वयं को बदलता है वह समझदार होता है. ऐसा व्यक्ति ना सिर्फ अपने जीवन में उन्नति करता है बल्कि समाज को भी नई दिशा दिखा सकता है. मध्यप्रदेश चंदेरी के रहने वाले मुदस्सर अंसारी इस बात की जीती मिसाल हैं. मुदस्सर ने ना सिर्फ कंप्यूटर शिक्षा का प्रसार किया बल्कि 50 से भी अधिक शहरों वा गाँवों को Internet से जोड़ने में भी अपना योगदान दिया है. मुदस्सर का ताल्लुक बुनकरों के परिवार से है. इनके लिए बुनकरी एक पेशा ही नही था वरन वह धरोहर थी जो एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सौंपती थी. किंतु 90 के दशक में आए वैश्वीकरण के कारण जब सस्ता कपड़़ा बाजार में मिलने लगा तो कई बुनकरों को संकट का सामना करना पड़ा. अपना पारंपरिक काम छोड़ कर दूसरे रोजगार अपनाने पड़े. मुदस्सर के पिता टूरिस्ट गाइड का काम करने लगे. परिवार चलाने के लिए इन्होंने भी एक टेलीफोन बूथ खोल लिया. किंतु दोनों की कमाई से भी परिवार चलाना कठिन था. परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए मुदस्सर रात दिन सिर्फ यह सोंचते कि कैसे आगे बढ़ा जाए. वह केवल बारहवीं कक्षा तक ही पढ़े थे. ऐसे में कोई अच्छी नौकर