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अक्तूबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जड़ों से जुड़ाव

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जड़ों से जुड़ाव कहते हैं व्यक्ति कहीं भी रहे उसे अपनी जड़ों को नही भूलना चाहिए. जो व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा होता है वह अपनी पहचान आसानी से बना सकता है.   भारत से हजारों मील दूर ट्रिनिडाड वेस्टइंडीज़ में जन्मे चैतराम गया जी ने भी अपनी जड़ों से अपना संपर्क बनाए रखा है. भारतीय धर्म और दर्शन में रुचि रखने वाले चैतराम जी हिंदू धर्म ग्रंथों विशेषकर रामायण के पठन से वहां के हिंदू समाज को भारतीय संस्कारों से परिचित कराते हैं. वह गरीबों की सहायता भी करते हैं.  चैतरामजी के पूर्वजों को सन 1845 के करीब अंग्रेज़ों ने भारत के कई हिस्सों खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल से गन्ने के खेतों में काम करने के लिए यहां लाकर बसाया था. कालांतर में इन लोगों ने अपने परिश्रम से स्वयं फार्म खरीदे, अपने बच्चों को शिक्षित किया और वहां की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया. इन लोगों ने संगठित होकर रहना आरंभ किया. पीछे छूट गए अपने समाज के धर्म और संस्कार को जीवित रखने का प्रयास किया. वहां कई हिंदू मंदिरों का निर्माण किया. धार्मिक ग्रंथों के पठन पाठन की परंपरा का निर्वहन किया. इस प्रकार हजा

हम सब एक हैं

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हम सब एक हैं हम सभी अपने अपने धर्म को मानते हैं. उसका सम्मान करते है. यह अच्छी बात है. किंतु बात तब बिगड़ जाती है जब लोग दूसरे धर्म को अपने धर्म से हीन समझ कर दूसरे धर्मावलंबियों से नफरत करने लगते हैं. लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो स्वयं के धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्मों को पूर्ण सम्मान देते हैं. जो सभी धर्मों को समान मानते हुए उनके मानने वालों के प्रति प्रेमभाव रखते हैं.  रायपुर के राजा तालाब पंडरी निवासी केवटदास बैरागी वैष्णव ऐसे व्यक्ति हैं जो सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखते हुए उनका सम्मान करते हैं. शिव तथा हनुमान के भक्त बैरागी इस्लाम धर्म के प्रति भी पूर्ण श्रद्धा रखते हैं. यही कारण है कि दस सालों से भी अधिक समय से वह रमज़ान के मौके पर अपने गांव के मुसलमानों को सहरी के लिए जगाते हैं. इसके लिए वह रात को 2 बजे जागकर सफेद कुर्ता पजामा पहन कर ढोलक की थाप पर नात-ए-पाक गाते हुए गांव की गलियों से गुजरते हैं. उनकी आवाज सुनकर मुसलमान जाग जाते हैं. इसके बाद घर लौटकर वह पूजा पाठ कर खिलैने बेचने के अपने काम पर निकल जाते हैं. केवटदास का कहना है कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं

हौसला अभी बाकी है मेरे दोस्त

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हौसला अभी बाकी है मेरे दोस्त भले ही ज़िंदगी जीने के लिए जिस्म का होना ज़रूरी है लेकिन ज़िंदगी जिस्म में कैद नही है. वह तो हमारे हौसले पर टिकी है. इस बात को साबित कर दिखाया है भिवंडी महाराष्ट्र के आदिल अंसारी ने. इनका 90 फीसदी जिस्म Paralyzed है किंतु यदि इनकी उपलब्धियों पर नज़र डालें तो दांतों तले उंगली दबा लेंगे. आदिल ने 14 National Paralympic swimming championship की 50 meter Freestyle and Backstroke पुरुष वर्ग में दो स्वर्ण पदक जीते हैं अपनी Modified car को 6000 Km. Drive कर Limca books of records में अपना नाम दर्ज़ कराया है. इसके अलावा अपनी Modified Honda Active bike में एक लंबी दूरी तय की है. यही नही आदिल एक दवा वितरण करने वाली कंपनी के मालिक हैं. बचपन से ही तैराकी का शौक रखने वाले आदिल अक्सर ही नदी में तैरने जाते थे. 16 मई 2006 को उन्होंने इसी उद्देश्य से छलांग लगाई. लेकिन दुर्भाग्यवश एक पत्थर से टकरा कर उनकी रीढ़ की हड्डी क्षतिग्रस्त हो गई. इस दुर्घटना के कारण उनका 90 प्रतिशत शरीर Paralyze हो गया. लेकिन उनके भीतर गज़ब का जुझारूपन है जिसने उनके हौसले को झुकने नही दि

क्यूंकि ज़िन्दगी तो फिर भी प्यारी है !

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क्यूंकि ज़िन्दगी तो फिर भी प्यारी है ! बस एक ही बात , हमेशा दिल में और दिमाग है , के कितनी भी मुश्किलें , कितनी भी तकलीफों का सामना करना पढ़े , ज़िन्दगी जो है , फिर भी प्यारी है !  दिल्ली में ही पैदाईश हुई और यहीं  सारी शिक्षा भी हासिल की !  बचपन से ही  पढाई लिखाई , में काफी अच्छा था , और काफी हसमुख  मिजाज़ भी  , पर साथ में  पोलियो और एक ऐसी बीमारी से जूझ रहा था , जिसे स्कोलियोसिस ( एक तरह की स्पाइनल डेफॉर्मिटी ) कहते हैं , इलाज के लिए दिल्ली का कोई सरकारी हॉस्पिटल नहीं छोड़ा , समय समय पर बढ़ी बढ़ी जानलेवा सर्जरी का सामना भी  करना पढ़ा और जैसे इन सब की आदत सी हों गयी थी , हालाँकि इन सब की  वजह से , कई बार कॉलेज स्कूल भी ड्राप करना पड़ा , कई बार धार्मिक/असक्षमता को लेके स्कूल में एडमिशन के लिए/ समाज में भेदभाओँ का भी सामना किया ,  पर तब भी हार नहीं मानी  ! हालांकि तभी पापा का एक्सीडेंट मेरी ग्रेजुएशन के टाइम पर  हुआ और उनको घर बैठना पड़ा ,  तब घर में माली हालत बिगड़ने लगे   और आखिर में फीस के लिए , पीसीओ , टुशंस , मोबाइल रिपेयरिंग वर्क्स , स्कॉलरशिप्स के सहारे , उच्च शिक्षा  हासिल कर , दो स

स्वयं को स्वीकार करें

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स्वयं को स्वीकार करें दूसरे आपके बारे में क्या राय रखते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने बारे में क्या राय रखते हैं. यदि आप आत्मविश्वास के साथ लोगों से मिलतेे हैं और स्वयं की शारीरिक अक्षमता को अपनी बाधा नही समझते तो लोग आपको वही प्यार और सम्मान देंगे जिसके आप हकदार हैं. ऐसी ही सोंच रखने वाले हैं पंचकुला हरियाणा के रहने वाले सुमित मेहता. 32 वर्षीय सुमित Congenital Myopathy नामक बीमारी से ग्रसित हैं. स्वयं को अक्षम ना समझने वाले तथा आत्मविश्वास से भरे सुमित Independent IT consultant एवं Software engineer हैं. इसके अतिरिक्त सुमित शास्त्रीय संगीत में स्नातक हैं तथा इन्होंने 9 सालों तक गायन की शिक्षा ली है. शारीरिक चुनैती के बावजूद सुमित का बचपन सामान्य बच्चों की तरह ही बीता. अपनी Tricycle पर बैठ कर वह हमउम्र बच्चों के साथ निकल जाते और खूब मस्ती करते. अपने मोहल्ले में वह सभी के प्रिय थे. अपने पराए सभी से घुलमिल जाते थे. उनके इस खुले व्यवहार का कारण उनके माता पिता की प्रेरणा ही थी जो सदैव सुमित को इस बात के लिए प्रोत्साहित करते कि वह खुद को किसी से भी कम ना समझें.  बचप

क़ौमी एकता का प्रतीक बनी रामलीला

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क़ौमी एकता का प्रतीक बनी रामलीला संपूर्ण उत्तर भारत में दशहरे के आस पास रामलीला का आयोजन होता है. इसके अंतर्गत भगवान राम के जीवन की घटनाओं  को मंचित किया जाता है. बहुत बड़ी संख्या में लोग रामलीला देखने जाते हैं. यूं तो रामलीला हिंदुओं के आराध्य प्रभु श्री रामचंद्र के जीवन की झांकी प्रस्तुत करती है लेकिन यह हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब की मिसाल भी है. वाराणसी के रामपुर इलाके में बहुसंख्यक मुसलमान समुदाय कई पीढ़ियों से रामलीला के आयोजन में सहायता करता रहा है. यहां रामलीला के मंचन की परंपरा सवा दो सौ साल पुरानी है. इस परंपरा के निर्वाह में मुसलमान समुदाय बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. पात्रों की पोशाक सिलने का काम हो या मंच की सज्जा का सभी काम मुस्लिम बिरादरी द्वारा किए जाते हैं.  मालटारी के बाजार में पिछले पैंतीस वर्षों से हो रही रामलीला भी हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल है. छह दिनो तक चलने वाली इस रामलीला की शुरुआत 1977 में मुहम्मद अली हसन ने की थी. तब से वही इसका संचालन कर रहे हैं. पूरे क्षेत्र में प्रचलित इस रामलीला को देखने हिंदू मुसलमान बड़ी तादाद में देखने आते हैं. बिहार के बक्सर

दीप से दीप जले

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दीप से दीप जले जैसे एक दीपक अनेक दीपों को प्रज्वलित कर सकता है वैसे ही एक व्यक्ति अपने अच्छे कार्यों से कई और लोगों को प्रेरित करता है. हमारे देश में प्रत्यारोपण के लिए अंगों की प्रतीक्षा करने वालों की एक बड़ी संख्या है. कारण है अंगदान को लेकर लोगों में कई प्रकार की भ्रांतियां हैं. इस विषय में लोग पूर्णरूप से जागरूक नही हैं. अक्सर यदि हम अंगदान करते भी हैं तो केवल अपने किसी बेहद नज़दीकी रिश्तेदार को. किसी अपरिचित को बिना किसी स्वार्थ के अंगदान करना हममें से बहुत से लोगों की सोंच से परे है. लेकिन ऐसा कर दिखाया है केरल के त्रिशूर जिले के पादरी फादर डेविस चिरामेल ने. लोगों को प्रेम दया तथा सेवाभाव की शिक्षा देने वाले पादरी ने अपने उदाहरण से लोगों को निस्वार्थ सेवा का संदेश दिया है.  बात सन 2009 की है जब समाज सेवा के लिए विख्यात फादर डेविस को कुछ लोगों ने सूचित किया कि उनके इलाके के एक व्यक्ति गोपीनाथन जो पेशे से एक Electrician हैं को एक किडनी की आवश्यक्ता है. फादर ने उनकी सहायता के लिए पैसे एकत्र करने आरंभ किए. वह उनके पास मदद को पहुंचे और पूंछा कि किडनी देने वाला कौन है. ग

हार नही मानूंगा

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हार नही मानूंगा हमारी फौज के जवान सरहद पर बड़ी दिलेरी के साथ हमारी रक्षा करते हैं. देश पर हमला होने पर अपने पराक्रम से दुश्मनों के दांत खट्टे कर देते हैं.  लेकिन सरहद से दूर भी वह अपने हौंसले और हिम्मत से लोगों को प्रोत्साहित करते हैं. मेजर देवेन्द्र पाल सिंह ऐसे ही हौंसले की मिसाल हैं. 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान एक Mortar bomb उनके पास आकर गिरा और फट गया. जब उनके साथी जवान उन्हें लेकर Field hospital पहुँचे तब वह ख़ून से सने हुए थे और बुरी तरह घायल थे. Army surgeon ने उन्हें मृत घोषित कर दिया और उन्हें अस्थाई मुर्दाघर में भेज दिया. Army hospital के एक अन्य डॉक्टर ने उनमें जीवन के क्षीण से लक्षण देखे. हंलाकी Mortar bomb के इतने नज़दीक फटने पर जीवित बच पाना मुश्किल था. उनका पेट खुला हुआ था और आंत का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया था. मजबूरन डॉक्टरों को उनकी आंत निकालनी पड़ी. उनका एक पांव काटना पड़ा किंतु उनकी जिजीविषा के आगे मौत भी हार गई. यह उनकी जीने की चाह ही थी जिसने बम के फटने से पहले उन्हें कूद जाने के लिए प्रेरित किया. अन्यथा उनकी मौके पर ही मौत हो जाती. इस स्थिति के ब

किरन की आशा

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किरन की आशा उन झुग्गी बस्तियों में जहाँ चारों तरफ गंदगी गरीबी और अशिक्षा फैली हो वहाँ आशा का संचार करने वाली हैं डॉ. किरन मार्टिन. इन्होंने ASHA society नामक एक NGO की स्थापना की जिसका उद्देश्य समाज के पिछड़े वर्ग तथा महिलाओं को समानता शिक्षा तथा स्वास्थ का अधिकार दिलाना है. डॉ. किरन एक Pediatrician हैं जो अपने अपने NGO के द्वारा समाज की सेवा करती हैं. उनके जीवन में परिवर्तन तब आया जब 1988 में दक्षिणी दिल्ली की डॉ. अम्बेदकर झुग्गी बस्ती में Cholera फैल गया. वहाँ के हालात देख कर उन्होंने निश्चय किया कि वह समाज के गरीब और पिछड़े लोगों के लिए कुछ करेंगी. अतः अपनी जैसी सोंच रखने वाले लोगों को एकत्रित कर उन्होंने ASHA Society का निर्माण किया. ASHA ने अपने कार्यक्रमों द्वारा 4 लाख से अधिक लोगों को लाभ पहुँचाया है. 50 से अधिक दिल्ली की झुग्गी बस्तियों को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया. झुग्गी बस्ती में रहने वाले होनहार विद्यार्थियों के लिए ASHA ने एक विशेष कार्यक्रम Education for slum children चलाया जिसके द्वारा कई बच्चों को उच्च शिक्षा पाने में मदद मिली. Dr किरन को उनके

उम्मीद की किरण

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उम्मीद की किरण जब चारों तरफ नफ़रत, धार्मिक उन्माद, अविश्वास का माहौल हो तब कुछ किस्से अंधेरे में उम्मीद की किरण बन कर सामने आते हैं। ऐसा ही एक वाक़या मुंबई में हुआ। एक मुस्लिम महिला नूरजहाँ ने अपने बेटे को एक गणपति मंदिर में जन्म दिया। २९ सितम्बर को इलियाज़ शेख की नींद अपनी गर्भवती पत्नी की प्रसव पीड़ा सुन कर खुली। उन्होंने फ़ौरन Taxi बुलाई और पास के Scion Hospital की ओऱ चल दिए। किंतु विजयनगर की तंग गलियों के कारण Taxi तेज़ी से नहीं बढ़ पा रही थी। Taxi driver नहीं चाहता था कि की बच्चे का जन्म उसकी Taxi में हो। अतः उसने उनसे Taxi छोड़ने को कहा। इलियाज़ ने देखा की वो एक गणपति मंदिर के सामने हैं। कोई और उपाय न देख कर उन्होंने  अपनी पत्नी को मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा दिया।  इलियाज़ कुछ करते उससे पहले ही मंदिर के बरामदे में बैठी कुछ महिला भक्त स्थिति को भांप कर मदद के लिए आगे आईं।  आनन फ़ानन आस पास के घरों से चादरें साड़ियां इत्यादि एकत्र कर प्रसव कक्ष बनाया गया और कुछ बुज़र्ग महिलाओं के संरक्षण में नूरजहाँ का प्रसव कराया गया।  सारे तनाव को चीरता हुआ नए जन्मे बच्चे का रुदन वातावरण में गूंज उ

उड़ान हौंसले की

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उड़ान हौंसले की  मुश्किलों में भी हंसना हमे आता है दरिया गहरा हुआ तो क्या  तैरना हमे आता है    अब किसको है परवाह हार या जीत की  हर लड़ाई को हिम्मत से लड़ना हमे आता है ये पंक्तियां पेशे से CA संकेत कल्याणी के हौसले उनकी हिम्मत उनके जज़्बे को दर्शाती हैं. संकेत हार ना मानने वाले जज़्बे की मिसाल हैं. अपनी शारीरिक चुनौतियों के बावजूद संकेत ने हिम्मत नही हारी और Charted accountancy की पढ़ाई पूरी की.  5 वर्ष की आयु तक संकेत का बचपन एक सामान्य बच्चे की भांति ही बीत रहा  था. माता पिता ने उनका दाखिला एक प्रतिष्ठित स्कूल में कराया. लेकिन एक दिन उनके दाएं हाथ में पीड़ा महसूस हुई. उनके माता पिता उन्हें लेकर डॉक्टर के पास गए. डॉक्टर ने कहा कि खेलते हुए इसे चोट लग गई होगी. इसी कारण पीड़ा हो रही होगी. अतः घबराने की ज़रूरत नही है. कुछ दिन सही बीतने के बाद उनके बांए हाथ में दर्द उठा फिर कुछ दिनों के बाद उनके बांए पैर में कंपन महसूस होने लगा. स्थिति की असमान्यता को भांप कर उनके माता पिता उन्हें मशहूर Orthopaedic के पास ले गए. कुछ परीक्षणों के बाद डॉक्टर ने बताया कि संकेत Rheumatoid Arthritis

ये कहाँ आ गए हम........

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ये कहाँ आ गए हम........ आज मैने एक अजीब सा मंजर देखा. गांधी जी की प्रतिमा के नीचे बैठे एक गाय को रोते देखा. इस अजीब दृश्य को देखकर मुझसे रहा नही गया. मैने उससे पूंछा कि वह क्यों रो रही है.  डबडबाई आंखों से मेरी तरफ देख कर वह बोली " मैं पशुओं में सबसे सीधी मानी जाती हूँ. बिना किसी भेदभाव के सबको अपना दूध पिलाती हूँ. जब तक संकट ना हो सींग भी नही चलाती हूँ. मैं तो हर कौम की माँ हूँ. लेकिन मेरा नाम लेकर लोगों ने एक निर्दोष को पीट पीट कर मार दिया. मेरा तो कलेजा फटा जा रहा है. बिना किसी दोष के मैं स्वयं को दोषी समझ रही हूँ. " मेरी तरफ प्रश्न भरी दृष्टी डालकर वह बोली " मैं तो पशु हूँ. कुदरत ने मुझे सोंचने की शक्ति नही दी है. लेकिन तुम इंसान तो सबसे समझदार प्राणी हो. फिर तुम लोगों ने कुछ क्यों नही सोंचा. " उसकी बात का मेरे पास कोई उत्तर नही था. उससे नज़रें चुराने के लिए मैं इधर उधर देखने लगा. तभी मेरी दृष्टि गांधी जी पर पड़ी. गोल चश्मे के पीछे उनकी आंखों में मुझे उदासी दिखाई पड़ी.