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मैं कमज़ोर नहीं

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जीवन में अक्सर कठिन परिस्थितियां हमारे समक्ष चुनौती पेश करती रहती हैं। यह चुनौतियां दरअसल हमें परखती हैं। क्योंकी इनसे लड़ने की ताकत हमारे भीतर ही मौजूद है। जो परिस्थितियों से घबरा कर हार नहीं मानता वह ही सही मायनों में विजेता होता है। प्रतिभा मिश्रा इस बात का उदाहरण हैं। इनके जीवन में कई समस्याएं आईं लेकिन अपनी हिम्मत से इन्होंने सभी को हरा दिया। प्रतिभा का जन्म 14 दिसंबर 1989 में बेगूसराय (बिहार) के एक छोटे से गांव में हुआ। बचपन से ही चुलबुली और हंसमुख प्रतिभा रीढ़ की हड्डी के क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण पिछले दस सालों से व्हीलचेयर पर हैं। पर अपने जज़्बे के कारण आज एक खुशहाल जीवन बिता रही हैं। उनका मानना है कि हम भले ही किसी भी स्थिति में क्यों ना हों परंतु कभी भी खुद को कमज़ोर नहीं समझें। क्योंकी हार जीत तो मन से होती है। जो मन को मजबूत बनाए रखते हैं कभी नहीं हारते हैं। एक छोटी सी उम्र से ही प्रतिभा ने जीवन में उतार चढ़ाव देखे हैं। सिर्फ सात साल की उम्र में इनकी माँ का कैंसर की बीमारी के कारण देहांत हो गया। परिवार बिखर सा गया। पिता श्री नंद किशोर मिश्र ने चारों भाई बहनों को संभा

अपनी 'आत्मशक्ति' के कारण टिका हूँ

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अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले प्रायः अकेले पड़ जाते हैं। समाज और परिवार की तरफ से उन्हें वह सहयोग नही मिल पाता जो मिलना चाहिए। यही कारण है कि हमारे समाज में न्याय देर से मिलता है। जबकी जो लोग भी अन्याय के विरुद्ध लड़ते हैं उसमें केवल उनका स्वार्थ नही होता। वह लड़ाई दरअसल हमारी अपनी लड़ाई होती है।  मास्टर विजय सिंह पिछले दो दशकों से एक ऐसी ही लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी सरकार से मांग है कि उनके गांव की लगभग 4000 बीघा जमीन जिस पर भूमि माफिया का कब्ज़ा है मुक्त कर दी जाए। पिछले 21 वर्षों से मुजफ्फर नगर कलेक्ट्रेट के गलियारे में इस अन्याय के विरुद्ध धरने पर बैठे हैं।  इनके गांव चौसाना मे दबंगो का बोलबाला था। गरीबों को न्याय नही मिलता था। सरकारी भूमि व योजनाओ को दबंग लोग हड़प लेते थे। एक दिन जब विजय सिंह स्कुल से घर आ रहे था एक पाँच साल का बच्चा अपनी माँ से कह रहा था कि माँ किसी के घर से आटा ले आओ। ताकि शाम को तो रोटी बन सके। बच्चे के शब्दों ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। उस रात उन्हें नींद नही आई।  विजय जी ने इस विषय  में कुछ करने की ठानी। अपने शिक्षक पद से त्याग पत्र दे दिया। अपने

मुश्किलें ना हों तो जीने का मज़ा क्या है

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  ज़िंदगी खूबसूरत है. परंतु इसकी खूबसूरती बढ़ जाती है जब हम इसके द्वारा पेश किए गए इम्तिहानों में सफल होते हैं. ज़िंदगी की चुनौतियां का सामना कर हम जीवन को पूर्णता में जीना सीखते हैं. मो. इमरान कुरैशी इस बात का उदाहरण हैं कि पीड़ा के बिना सार्थक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. 26 साल के इमरान 2009 से व्हीलचेयर पर हैं लेकिन इससे इनके जज़्बे में कोई कमी नहीं आई है. इमरान व्हीलचेयर स्पोर्ट्स जैसे बास्केट बॉल , बैडमिंटन मैराथन आदि खेलते हैं. इसके अलावा यह नृत्य और तैराकी भी करते हैं. देखते ही देखते किसी की भी तस्वीर कागज़ पर उतार देने का हुनर भी इनके पास है. इमरान मल्टीपल एक्सक्लोरोसिस नामक बीमारी का शिकार हैं. 17 साल की उम्र तक उनके जीवन में सब कुछ सामान्य था. 2007 में अचानक इनकी आँख की रौशनी चली गई. लखनऊ के PGI में दिखाया गया. करीब 25 दिन के इलाज से आँखें ठीक हो गईं. जब सब ठीक लगने लगा तब 2009 में इनके पैर सुन्न पड़ने लगे. डॉक्टरों ने बताया कि अब इमरान कभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते. इमरान का जन्म सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश में रहने वाले किसान परिवार में हुआ था.

देश के लिए ओलंपिक पदक जीतना चाहता हूँ

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मध्यप्रदेश भोपाल के रहने वाले प्रणय खरे का सपना देश के लिए ओलंपिक पदक जीतने का है. डी.पी.एस. भोपाल की नवीं कक्षा के छात्र प्रणय मध्यप्रदेश अकादमी द्वारा चयनित एक प्रतिभाशाली घुड़सवार हैं. अपने बड़े भाई प्रांजल से इन्हें घुड़सवारी करने की प्रेरणा मिली. प्रांजल और प्रणय की उम्र में 10 साल का अंतर है. प्रांजल द्वारा प्रेरित करने पर प्रणय मध्यप्रदेश राज्य घुड़सवारी अकादमी में अभ्यास करना आरंभ कर दिया. 22 अप्रैल 2002 को जन्मे 8 साल की उम्र से घुड़सवारी कर रहे हैं. प्रणय के पिता प्रवीण खरे एक व्यवसायी हैं. माता डॉ. प्रीती खरे बहुमुखी प्रतिभा की स्वामिनी हैं. वह एक समाज सेविका, साहित्यकार एवं व्यवसायी हैं. इसके अलावा वह रेडियो तथा दूरदर्शन पर उद्घोषिका भी हैं. प्रणय एक प्रतिभाशाली घुड़सवार हैं. घुड़सवारी जैसे खतरनाक खेल में इस छोटी सी उम्र में प्रणय ने अपने से बड़े खिलाडिय़ों से भी अपना लोहा मनवा लिया है. प्रणय ने अभी तक कई बड़ी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेकर जीत का परचम लहराया है. इस खेल में इन्होंने {32}स्वर्ण, {16 }रजत एवं {10} कांस्य तथा अतिप्रतिष्ठित 2 रोज

जीवन के संघर्ष ने सिखाया लिखना

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मनुष्य जब संघर्ष की भट्टी में स्वयं को तपाता है तभी वह कुंदन बन कर उभरता है. ओमप्रकाश क्षत्रिय जी ने भी जीवन की चुनौतियों का सामना करके ही स्वयं को लेखन के क्षेत्र में प्रतिस्थापित किया है. 26 जनवरी 1965 को मध्यप्रदेश के भानपुरा जिले में आपका जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ. पिता श्री केशवराम परमानंद क्षत्रिय ग्वालियर रियासत में सिपाही थे. माता सुशीलाबाई क्षत्रिय एक धार्मिक विचारों की महिला थीं. बचपन से ही आपका जीवन संघर्षमय रहा. स्वयं को शिक्षित करने के लिए आपने किसी भी वैध काम को करने में संकोच नहीं किया. यहीं से कर्मठता आपके चरित्र का अभिन्न हिस्सा बन गई.  लेखन में आपकी रुचि बचपन से ही थी. छोटी उम्र से ही आपकी रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं. अपनी हर प्रकाशित रचना को काट कर आप संग्रहित कर लेते थे. एक बार पिता ने उन्हें रद्दी कागज़ जान कर बेंच दिया. जब ओमप्रकाश जी ने बताया "बाबूजी वो मेरी रचनाएं थी.” तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा "तो क्या हुआ और लिख लेना."  ओमप्रकाश जी ने बिना साहस खोए पुनः सृजन आरंभ कर दिया. 1984 में आपने हायर सेकेंड्री की परी