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लेखन मेरे लिए जीवन है

डॉ. (श्रीमती) नीरज सुधांशु एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं. वह एक लेखिका, प्रसुति और स्त्री रोग विशेषज्ञ एवं एक प्रकाशन हाउस की स्वामिनी हैं. लेकिन लेखन उनके लिए प्राण वायु की तरह है जिसके बिना वह जीवन की कल्पना भी नही कर सकती हैं. बचपन से ही लेखन उनका प्रिय कार्य रहा है. आरंभ कविताओं से हुआ. इसके पश्चात लेखन की हर विधा में महारत हांसिल कर ली. कविता,गीत,दोहे,ग़ज़ल,निबन्ध,व्यं ग. मेडिकल लेखन इत्यादि वह विधाएं हैं जिनमें वह लिखती हैं. आस पास के वातावरण से प्रभावित होकर वह विषयों का चयन करती हैं. इनके द्वारा लिखी कविताएं, कहानियां, लेख, व्यंग राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं. इनके द्वारा संपादित रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है. इनमें प्रमुख हैं व्यंग्य संग्रह (आदमी कहीं का) ग़ज़ल संग्रह (सूर्योदय हुआ)  कविता संग्रह (मोती की खोज) (उपासना के द्वार से) लघुकथा संग्रह (बूंद बूंद सागर) मैं के इर्द गिर्द (1111-दोहे) इनकी लिखी पुस्तक है आँसू लावनी (111-नाटक छंद में मुक्तक) आकाशवाणी नजीबाबाद से समय समय पर डॉ. नीरज सुधांशु जी की वार्ताओं का प्रसारण भी होता रह

सेवा ही परम धर्म है इनका

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  सेवा ही परम धर्म है सड़क पर चलते हुए कई बार हम ऐसे लोगों से मिलते हैं जो यूं ही सड़कों पर घूमते रहते हैं। जो मिल गया खा लिया। किसी भी जगह लेट या बैठ जाते हैं। इन लोगों के बाल बेतरतीब बढ़े हुए एवं उलझे रहते हैं। तन पर मैले कुचैले कपड़े होते हैं।‌ ना नहाने के कारण शरीर पर मैल की परतें जमा होती हैं। कई बार शरीर पर घाव होते हैं जिनमें कीड़े पड़े होते हैं।  ऐसे सब लोगों को हम पागल कह कर दुत्कार देते हैं। अपने आसपास भी भटकने नहीं देते। हमारे लिए इनका अस्तित्व समाज पर एक भार से अधिक कुछ नहीं होता है।  पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों की सेवा ही अपना सबसे बड़ा धर्म समझते हैं। डॉ. संजय कुमार शर्मा ऐसे ही एक व्यक्ति हैं। जो मानव सेवा को अपना सबसे बड़ा धर्म मानते हुए विगत 28 वर्षों से मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के मसीहा बने हुए हैं।  उनका ना तो कोई NGO है और ना ही इन्हें कोई सरकारी सहायता प्राप्त है। यह सेवा का कार्य डॉ. संजय कुमार शर्मा अपने खर्च पर करते हैं।  सड़क पर भटकते मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को खाना देना, दवाइयां देना, उनके कपड़े बदलवाना, नहलाना, उनके घावों

अवकाश ग्रहण की उम्र में नया आरंभ

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            अवकाश ग्रहण की उम्र में नया आरंभ अमूमन 60 साल की उम्र अपने कार्यक्षेत्र से अवकाश ग्रहण करने की मानी जाती है। लेकिन 65 साल की उम्र में एक नए क्षेत्र में कदम रखना सचमुच साहस का काम है। परंतु एस भाग्यम शर्मा जी ने ना सिर्फ यह साहस दिखाया बल्कि अपने चुने हुए क्षेत्र में अपनी एक पहचान भी बनाई। साहित्य के क्षेत्र में एस भाग्यम शर्मा जी एक प्रतिष्ठित नाम हैं। उनका जन्म 18 मार्च 1944 को तमिलनाडु के ऊटकमंड में हुआ था। उन्हें बचपन से ही साहित्य में रुचि थी। अपनी पढ़ाई के साथ साथ उन्हें जो उपन्यास व कहानी मिलती थी पढ़ लेती थीं। विवाह के बाद ससुराल में भी उन्हें पढ़ने का माहौल मिला। उनके पति स्वयं भी एक लेखक थे। उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। जिसके कारण घर में पुस्तकों के साथ तत्कालीन कई प्रसिद्ध पत्रिकाएं भी आती थीं। एस भाग्यम शर्मा जी भी उन्हें पढ़ती रहती थीं। इस तरह एक पाठिका के तौर पर उनका साहित्य से गहरा जुड़ाव था।  पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने के साथ साथ एस भाग्यम शर्मा जी ने 28 साल तक शिक्षण का कार्य किया। अवकाश ग्रहण करने के बाद एस भाग्यम शर्मा जी के मन में अक्सर आता था कि उन्ह

अनोखी व्हीलचेयर

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                        अनोखी व्हीलचेयर जब कोई व्यक्ति शारीरिक चुनौती का सामना करता है तो सहायक उपकरण ही उसके जीवन को सुगम बनाते हैं। चलने फिरने में असमर्थ लोगों के लिए व्हीलचेयर एक ऐसा सहायक उपकरण होता है जिसकी सहायता से उन लोगों को आवागमन में बहुत सहायता मिलती है। एक व्हीलचेयर ऐसे व्यक्तियों को स्वावलंबी बनने में मदद करती है। परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि आज भी हमारे देश में ऐसे स्थानों की कमी है जो व्हीलचेयर का प्रयोग करने वालों को आवागमन की सुगमता प्रदान कर सकें। अधिकांश स्थानों पर सीढ़ियां होती हैं। जिन पर व्हीलचेयर का चढ़ पाना सुगम नहीं होता है। सीढ़ियां ना भी हों तो अधिकतर धरातल बहुत ऊँचे नीचे होते हैं। जिन पर व्हीलचेयर चलाना कठिन होता है। व्हीलचेयर का प्रयोग करने वालों की इन समस्याओं को समझ कर आविष्कारक और वैज्ञानिक रियाज़ रफीक़ ने एक अनोखी व्हीलचेयर का निर्माण किया है। इस अनोखी व्हीलचेयर की एक खासियत यह है कि इसकी सहायता से सीढ़ियां भी आसानी से चढ़ी जा सकती हैं। व्हीलचेयर में एक खास तरह का मेकेनिज्म प्रयोग किया गया है। इस मैकेनिज्म के प्रयोग की वजह से उपयोगकर्ता को केवल अपनी व

स्वयं दिव्यांग होकर भी करते हैं सेवा

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  स्वयं दिव्यांग होकर भी करते हैं सेवा मनुष्य में हौसला और कुछ करने की चाहत हो तो कोई चीज़ कठिन नहीं है। यही मिसाल पेश की है बिहार के शांति मुकुल जी ने।‌ वह स्वयं शारीरिक रूप से अक्षम हैं फिर भी दिव्यांग जनों की सेवा में समर्पित हैं। इनका जन्म 1983 में बिहार की साहित्यिक और सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर में हुआ था। जन्म से ही इनका एक पैर पोलियो के कारण पैरालिसिस से ग्रस्त है। पर इनमें हिम्मत की कोई कमी नहीं थी। इन्होंने इतिहास विषय से स्नातक एवं बी.एड. की डिग्री प्राप्त की। स्वयं दिव्यांग होने के कारण अन्य दिव्यांगों की पीड़ा को समझते थे। इसलिए उन्होंने स्वयं ही दिव्यांग जनों के उत्थान के लिए काम करने का बीड़ा उठाया। शांति मुकुल स्वतंत्र रूप से दर्जनो संस्थान से जुड़े हुए हैं और दिव्यांगों की सेवा कर रहे हैं। इन्होंने कई बार रक्त दान भी किया है।  शांति मुकुल की पत्नी कुमारी सरिता भी एक हाथ व पैर से दिव्यांग हैं और अपने पति के कार्य में पूरा सहयोग करती हैं। शांति मुकुल ने अपने आप को पूरी तरह दिव्यांग जनों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया है। दिव्यांग जनों की भलाई के लिए उपकरण दिलवाना हो,

मुसीबतों से डरें नहीं तो जीत पक्की.....

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              मुसीबतों से डरें नहीं तो जीत पक्की..... जीवन में अक्सर विपरीत परिस्थितियां आकर हमारा रास्ता रोकने का प्रयास करती हैं। कुछ लोग इन विपरीत परिस्थितियों से हार मान कर चुपचाप बैठ जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो इन विपरीत परिस्थितियों को चुनौती देते हैं। वह बिना डरे इनके पार जाकर संघर्ष का रास्ता अपनाते हैं।  जीत उन्हीं लोगों को मिलती है जो संघर्ष के रास्ते पर चलकर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हैं।  गीता चौहान एक ऐसी ही मिसाल हैं। मात्र 6 साल की उम्र में वह पोलियो का शिकार हो गईं। उनकी चलने फिरने की शक्ति समाप्त हो गई। वह व्हीलचेयर पर आ गईं। परंतु उनका संघर्ष सिर्फ इतना ही नहीं था। ऐसी स्थिति में जब उन्हें अपने पिता के सहयोग की सबसे अधिक आवश्यकता थी तब उनके पिता ने उनका सहयोग करने से मना कर दिया। गीता पढ़ना चाहती थीं। शिक्षा ग्रहण कर स्वयं को योग्य बनाना चाहती थीं। किंतु उनके पिता चाहते थे कि वह घर पर रहें। उनका मानना था कि उनकी शारीरिक अक्षमता उनकी राह का रोड़ा है। पिता ने तो साथ नहीं दिया लेकिन गीता की माँ उनकी पढ़ने की ललक को भलीभांति समझती थीं। उन्होंने गीता की पढ़

कर दिखाना है.....

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कुछ बड़ा करना है तो ज़िद ठाननी पड़ती है। आने वाली तकलीफों से डरने की जगह उनका सामना करने की हिम्मत पैदा करनी पड़ती है। अगर आप ज़िद ठान लें कि कुछ कर दिखाना है तो परेशानियां आपको डराती नहीं हैं। ऐसी ही एक ज़िद ठानी हिंदुस्तान के पारा तैराक मोहम्मद शम्स आलम शेख ने। अपने हौसले से उन्होंने अपना नाम इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में सबसे तेज़ पारा तैराक के रूप में दर्ज़ करा लिया। वैसे तो शम्स अपने नाम पहले ही कई रिकॉर्ड्स दर्ज़ करा चुके हैं।  पर जब शम्स पता चला कि इनके राज्य बिहार में मिश्रीलाल शीतकालीन तैराकी प्रतियोगिता होने वाली है तो इन्होंने उसमें हिस्सा लेकर कुछ कर दिखाने की ठानी। इनके स्विमिंग कोच शशांक कुमार ने  बताया कि हर साल मिश्रीलाल शीतकालीन तैराकी प्रतियोगिता गंगा नदी में होती है। जो कि 8 दिसंबर 2019 को होने वाली है । पटना में आयोजित इस प्रतियोगिता में तैराक को गंगा नदी में दो किलोमीटर की दूरी तैर कर पार करनी होती है। शम्स के मन में आया कि इस प्रतियोगिता में भाग लेकर कुछ कर दिखाया जाए। पर जब इनके कोच का फोन आया था तब दिसंबर की शुरुआत हो चुकी थी। समय बहुत कम था। पर मन म

मुझे उड़ान भरना ‌है

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                      मुझे उड़ान भरना ‌है मुश्किलें ‌लाख‌ रोड़े अटकाएं पर जिसमें हौसला है उसे ‌कोई भी नहीं रोक सकता है। वह तो हर मुश्किल के लिए खुद एक चुनौती बन जाता है।‌ यह बात मोहम्मद शम्स आलम शेख़ पर एकदम खरी उतरती है। शम्स को भी कठिनाइयों ने घेरने का प्रयास किया। पर इस लड़ाके ने अपनी हिम्मत से उस घेरे को ध्वस्त कर दिया। उस घेरे से वह एक विजेता के रूप में बाहर निकल कर आए। शम्स एक पैरा तैराक, प्रेरक वक्ता और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के अधिकारों के पक्षधर हैं। 17 जुलाई 1986 को बिहार के मधुबनी में जन्मे शम्स आलम का संबंध किसानों के परिवार से है। पर शम्स के नाना  अपने समय के माने हुए पहलवान थे। अपने नाना को मिलने वाली शोहरत और इज्ज़त से प्रभावित होकर शम्स भी खेलों की तरफ आकर्षित हुए। वह अपने गांव रातौस में तैराकी किया करते थे। छह साल की उम्र में शम्स पढ़ाई के सिलसिले में अपने भाई के साथ मुंबई चले गए। वहाँ जाने के बाद भी शम्स के अंदर का खिलाड़ी शांत नहीं हुआ। उन्होंने कराटे से अपना नाता जोड़ लिया। ‌कोच उमेश मुर्कर के निरीक्षण में इन्होंने विधिवत कराटे में प्रशिक्षण ‌लेना श