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जीवन का लक्ष्य

इस सृष्टि के दो प्रमुख अंग हैं  प्रकृति  जीव  प्रकृति जड़ स्वरुप है जबकि जीव चेतन स्वरुप। दोनों ही प्रकृति एवं जीव काल से बंधे हैं। काल का चक्र अनवरत चलता रहता है। दोनों प्रकृति और जीव इसकी गति के साथ साथ कर्म में लगे रहते हैं। प्रकृति के क्रिया कलाप जैसे ग्रह नक्षत्रों का संचालन, ऋतुओं का परिवर्तन अबाध गति से चलता रहता है। प्रकृति की भांति जीव भी अपने कर्मों में संलग्न हैं। इन कार्यों द्वारा जीव स्वयं के शरीर का पोषण करता है, आत्म रक्षा करता है, शरीर को नई उर्जा देता है एवं संतान उत्पन्न करता। दूसरे शब्दों में आहार, निद्रा, आत्मरक्षा एवं मैथून ये चार लक्षण प्रत्येक जीव में पाए जाते हैं। प्रकृति और जीव दोनों का ही नियंता ईश्वर है। काल भी उसके आधीन है। ईश्वर अनादि और अनंत है। वह सत चित आनंद रूप है। इस सृष्टि के समस्त चर एवं अचर प्राणियों का पिता ईश्वर ही है। ईश्वर की अनुभूति तीन रूपों में होती है  सर्वव्यापी शक्ति के रूप में जो कि प्रकृति के कण कण में व्याप्त हैं।   परमात्मा के रूप में जो सभी जीवों के ह्रदय में निवास करते हैं और एक मित्र की भांति दिशा निर्देश करते हैं।