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संघर्षों को चुनौती

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संघर्षों को चुनौती एक दलित स्त्री जो पोलियो से पीड़ित हो।  उसका संघर्ष तीन तरफा हो जाता है।  किंतु फिर भी इन्होंने हार नहीं मानी।  सभी संघर्षों को डट कर चुनौती दी।  एेसे  साहस की मिसाल हैं गौरी कुमार।  बिहार के मुंगेर जिले में जन्मी गौरी के पिता एक सफाई कर्मचारी थे।  बचपन में वह पोलियोग्रस्त हो गईं।  घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी किंतु उनकी माँ चाहती थीं कि वह पढा़ई करें।  लेकिन घर पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पडा़ जब उनकी माँ की मृत्यु हो गई और पिता का काम भी छूट गया।  फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।  सरकारी छात्रवृत्ति की मदद से उन्होंने पढा़ई जारी रखी और एक वकील बनीं।  अपने पेशे को उन्होंन दलितों और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा में प्रयोग किया।  अपने जिले के स्थानीय चुनाव में खडी़ हुईं और 5 वर्षों तक ward council के सदस्य के तौर पर कार्य किया।  वह बिहार की पहली दलित महिला वकील थीं जिन्हे Juvenile Justice Board के सदस्य के रूप में चुना गया।  उन्होंने राजनीति में कदम जमाने का प्रयास किया किंतु वह माहौल उन्हें रास नहीं आया।  अतः उन्होंने एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार

जज्बे को सलाम

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जज्बे को सलाम  अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित अमित कुमार सरोहा का जज़्बा तरीफ़ के काबिल है।  22 वर्ष की आयु में एक कार दुर्घटना में इनकी रीढ़ की हड्डी में लगी चोट ने इन्हें सदा के लिए Wheelchair पर बैठा दिया।  लेकिन अदम्य साहस के धनी अमित के हौंसले को झुका नहीं पाई।  आज अमित सभी के लिए प्रेरणा के स्तंभ हैं।  दुर्घटना से पूर्व अमित राष्ट्रीय स्तर के उभरते हुए हॉकी खिलाडी़ थे।  लेकिन दुर्घटना ने उनके चलने फिरने पर भी पाबंदी लगा दी।  कुछ समय निराशा में बीता किंतु शीघ्र ही अमित ने यह जान लिया की भले ही वह शारीरिक रूप से कमजो़र हो गए हों किंतु यदि वह मन से हार न माने तो बहुत कुछ कर सकते हैं।  अमेरिकी Wheelchair Rugby खिलाडी़ Jonathan Sigworth जो भारत में Para sports को प्रचलित करने आए थे, से मुलाकात के बाद अमित ने अपनी प्रतिभा को पहचाना।  इन्होंने Discus Throw, Club Throw, Javeline Throw प्रतियोगितओं के लिए स्वयं को तैयार किया।  अपने पहले ही National games में इन्होंने Silver medal जीता।   इसके बाद तो अमित ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।  कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं मे

रक्षा बंधन और उसकी कथायें

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रक्षा बंधन और उसकी कथायें भारत में भाई बहन के प्रेम को दर्शाता पर्व है रक्षा बंधन।  श्रावण मास की पूर्णिमा को बहनें अपने भाइयों की कलाई पर एक धागा बांधती हैं जो उनके प्रेम का प्रतीक होता है। बदले में भाई अपनी बहनों की रक्षा का वचन देते हैं।   सदियों से राखी का त्यौहार हमारे देश में बनाया जाता रहा है।  इसके मनाए जाने के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं।   सबसे प्राचीन कथा देवासुर संग्राम के समय की है।  जब असुरों का पलडा़ भारी पड़ने लगा तब देवराज इंद्र देवताओं के गुरू बृहस्पति के पास गए और देवों की रक्षा का उपाय पूँछा।  बृहस्पति ने उन्हें एक अभिमंत्रित धागा दिया।  जिसे इंद्र की पत्नी शची ने उनकी भुजा पर बांध दिया और देवों की विजय हुई।   एक और पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु ने असुरराज बली से तीनों लोक ले लिए तो बलि ने उनसे प्रार्थना की कि भगवान विष्णु उसके साथ उसके महल में रहें।  भगवान विष्णु ने उसकी बात मान ली और उसके महल में रहने चले गए।  यह बात देवी लक्ष्मी को अच्छी नही लगी।  उन्होंने रक्षा सूत्र बांध कर महारज बलि को भाई बना लिया और उपहार स्वरूप भगवान विष्णु को वापस प्राप्त क

नंगे पांव सफलता के पथ पर

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नंगे पांव सफलता के पथ पर  डॉ. सूर्य बाली का कहना है कि वो रोज़ नंगे पांव 11km. पैदल चल कर स्कूल जाते थे।  जौनपुर उत्तर प्रदेश के बैरिली गाँव में गोंड जनजाति में जन्मे डॉ. सूर्य बाली अपने गाँव के प्रथम डॉक्टर हैं।  उनका डॉक्टर बनने का सफर संर्घषों से भरा है।   इनके पिता एक बंधुआ मज़दूर थे। उस जीवन से तंग आकर वह घर छोड़कर चले गए।  उनकी माँ लोगों के घरों में सफाई करना, खाना बनना, बर्तन धोने का काम करती थीं।  जब तक उनके पिता नहीं लौटे तब तक उनकी छोटी सी कमाई से ही घर चलता था।  किंतु उनमें पढ़ने की ललक थी. गाँव की प्राथमिक पाठशाला में वह पढ़ने जाते थे।  फीस तो नहीं पड़ती थी किंतु पुस्तकों के लिए वह बेर तथा अन्य फलों को एकत्रित कर उन्हें शहर के लोगों से पुस्तकों से बदल लेते थे।  किंतु कुछ शिक्षकों का व्यवहार उनके प्रति अच्छा नहीं था। उन्हें प्रोत्साहित करने की बजाय वह उन्हें यह कह कर हतोत्साहित करने का प्रयास करते कि पढ़ लिख कर क्या करोग तुम्हें तो अपने माँ बाप की तरह काम करना चाहिए।  किंतु पढा़ई के प्रति उनकी लगन के कारण वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते थे।  लेकिन ताने और अपमान कम नही

ईमानदारी की मिसाल

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ईमानदारी की मिसाल अक्सर लोगों को लगता है कि पैसे की तंगी ईमान को डिगा देती है किंतु राजस्थान के रिक्शाचालक आबिद कुरैशी ने ईमानदारी की मिसाल प्रस्तुत करते हुए 1 लाख 17000 की रकम वापस कर दी।  यह रकम उन्हे एक पॉलीथीन बैग में सड़क के किनारे जयपुर  Government hostel के पास पडी़ मिली।  रात के 10 बजे तक उन्होंने इंतजा़र किया कि शायद जिसके पैसे हैं वह ढूंढ़ता हुआ आ जाए. किंतु जब कोई नहीं आया तो वह घर चले गए।  सामान ढोने का रिक्शा चलाने वाले आबिद रोजा़ना 200 से 300 रु. कमाते हैं।  जिससे मुश्किल से घर चल पाता है।  अपनी नन्हीं बेटी की पढा़ई और शादी के लिए वह रकम जोड़ रहे हैं।  इस पर भी एक बार भी उनका ईमान नहीं डोला।  रकम को पुलिस स्टेशन ले जाने में वह डर रहे थे कि कहीं पुलिस उन पर ही शक ना करे।  अतः वह रकम घर ले आए किंतु उन्हें और उनकी पत्नी को रात भर नींद नहीं आई।  सुबह जब उन्होंने अपने पडो़सियों से बात की तो सबने यही कहा कि वह पैसे पुलिस को देने की बजाय स्वयं रख लें।  किंतु उन्हें कुरान शरीफ़ की हिदायत याद थी कि ईमानदारी सबसे बडी़ नेमत है। केवल ईमानदार ही जन्नत का हक़दार होता है।  अतः पति प

सर उठा के जियो

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सर उठा के जियो Head held high foundation एक ऐसी संस्था है जिसका उद्देश्य अशिक्षित एवं बेरोज़गार लोगों को शिक्षा, कौशल और रोज़गार के सही अवसर प्रदान कर गरीबी दूर करना है।  इससे गाँवों मे रहने वाले गरीब अशिक्षित लोगों को यह मौका मिलता है कि वह अपनी पसंद का काम कर इज्ज़त से सर उठा कर जी सकें।  इस संस्था का सिद्धांत है कि यदि लोगों को सही अवसर प्रदान किए जायें तो वह स्वयं ही गरीबी को मात दे सकते हैं।    2007 में सुनील सवारा समिक घोष अजित सतपुते और राजेश भट ये चारों एक विचार लेकर साथ में आए। उन्होंने तय किया कि पिछडे़ ग्रामीण इलाकों से अशिक्षित या कम पढे़ लिखे लोगों को लेकर उन्हें अंग्रेजी़ कंप्यूटर तथा अन्य क्षेत्रों में प्रशिक्षित कर इन्हें रोज़गार उपलब्ध कराया जाए जिससे उन्हें सम्मानपू्र्वक जीवन यापन का अवसर मिल सके।  पहली बार में उन्होंने 8 लोगों का चयन किया।  आठ महिने से भी कम समय में उनका प्रशिक्षण पूरा हो ग़या. 2008 में एक BPO का निर्माण किया गया जो प्रशिक्षण प्राप्त लोगों को नौकरी दिलाने का काम करता है।  इस संस्था द्वारा अब तक कई लोगों के जीवन में बदलाव लाया गया है।   इन्

तिनका तिनका तिहाड़

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तिनका तिनका तिहाड़ जब कभी जेल का जि़क्र आता है तो जे़हन में सींखचों के पीछे कै़द खूंखार मुजरिमों की तस्वीर उभरती है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जेल की चारदीवारी के पीछे भी ज़िंदगी बसती है।  जेल में बंद कै़दियों के ह्रदय में भी भावनाओं का उफान उठता है।  सींखचों के पीछे से झांकती आंखों में भी सपने पलते हैं।  जेल में रहने वाला हर शख़्स खूंखार मुजरिम नहीं होता।  उनमें से अधिकांश हालातों का शिकार होकर जुर्म कर बैठते हैं।  बाहर की दुनिया में रहने वाले हम लोग अपने दृष्टिकोंण से उनका आंकलन करते हैं।  जब बात महिला कैदियों की आती है तो हमारी आलोचना और तीव्र हो जाती है। हम महात्मा गांधी की वह सीख भूल जाते हैं 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं' । उसी प्रकार हमें अपराधियों के स्थान पर अपराध से किनारा करना चाहिए।  आवश्यक्ता है उनके जीवन में झांक कर देखने की।  उनके सुख दुख को समझने की।  एसा ही एक प्रयास किया है तिहाड़ जेल की महानिदेशक विमला मेहरा और संवेदनशील लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता वर्तिका नंदा ने। इन्होंने तिहाड़ जेल की महिला कैदियों के दिल में झांकने का प्रयास किया. परिणाम स्वरूप जो सा

चल अकेला

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चल अकेला यदि आप सोंचते हैं कि एक अकेला आदमी क्या कर सकता है तो आपके इस संदेह को गलत साबित कर दिखाया है  Forest man कहे जाने वाले एक शख्स ने जिनका नाम है जादव मोलाई पेंग।  मोलाई असम की मीशिंग जनजाति से हैं।  ये एक पर्यावरण संरक्षक हैं।  1979 से यह अकेले ही मजूली द्वीप पर वृक्षारोपण कर रहे हैं।  स्वयं ही उनका संरक्षण करते हैं।  इस प्रकार इन्होंने वहाँ की बलुई भूमि पर अमेरिका के  Central Park से भी बडा़ एक वन खडा़ कर दिया है. इसका क्षेत्रफल 1360 एकड़ है।   Molai forest (असमिया में मोलाई कठोनी ) के नाम से विख्यात यह वन असम के जोरहट जिले में कोकिलामुख नामक स्थान के पास है।  1979 में गोलघाट जिले में वन विभाग द्वारा जब अरुणा चपोरी नामक स्थान पर जो कि कोकिलामुख से 5km. दूर है 200 hectares के क्षेत्र में वृक्षारोपण का काम आरंभ किया तब मोलाई भी वहाँ मज़दूरी करते थे।  प्रोजक्ट की समाप्ति पर जब सब चले गए तो भी मोलाई वहीं रह कर उन वृक्षों की देखभाल करने लगे तथा साथ ही साथ नए वृक्ष भी रोपित करते रहे।  इस प्रकार उन्होंने उस क्षेत्र को सघन वन में बदल दिया।  मोलाई वन कई प्रकार के वन्य जीवों एवं प

Super 30

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Super 30 आनंद कुमार अपने Super 30 कार्यक्रम के माध्यम से विख्यात हैं। इस कार्यक्रम के अंर्तगत ऐसे ३० प्रतिभाशाली छात्रों का चुनाव किया जाता है जो IIT एवं JEE जैसी इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में बैठना चाहते हैं किंतु आर्थिक रूप से पिछडे़ होने के कारण महंगे कोचिंग संस्थानों में दाखिला नहीं ले सकते हैं।  आनंद कुमार की Ramanujam School of mathematics द्वारा आयोजित प्रतियोगिता के माध्यम से 30 मेधावी छात्रों का चुनाव किया जाता है।  इन छात्रों को निशुल्क IIT-JEE प्रवेश परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाता है।  इन छात्रों के रहने खाने की व्यवस्था आनंद कुमार ही करते हैं।   2002 में अपनी स्थापना के बाद से ही Super 30 ने कई कीर्तिमान बनाए हैं।  2008 एवं 2009 में सभी 30 छात्रों ने प्रवेश परीक्षा में सफलता पाई।  2014 तक कुल 360 में से 308 छात्रों ने Super 30 के माध्यम से सफलता पाई है।  Times magazine द्वारा 2010 में Super 30 को Best of Asia में से एक चुना गया है।   स्वयं एक साधारण परिवार में जन्मे आनंद कुमार एक गणितज्ञ हैं।  यह कई राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय Mathematical journals के ल

जहाँ चाह वहाँ राह

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जहाँ चाह वहाँ राह इस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया है अजित कुमार यादव ने।  एक लंबी बीमारी के कारण उनके नेत्रों की ज्योती चली गई, किंतु उनके हौंसले की मशाल जलती रही।  नेत्रहीनता उनके राह का रोडा़ नही बनी। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा दिल्ली के Spring Dale School से पूरी की। दिल्ली के Ramjas college से इन्होंने समाजशास्त्र में MA किया।  इसके बाद हरियाणा के एक सरकारी स्कूल में पढा़या।   UGC NET-JRF पास कर इन्होंने Shyamlal college of Delhi university में सहायक प्रोफेसर के तौर पर काम करना आरंभ किया।  इसके बाद इन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी प्रारंभ की।  इसके लिए तकनीकि का बेहतर प्रयोग किया।  किंतु सिविल सेवा की परीक्षा मे 791 में से 208 रैंक पाने के बावजूद उन्हें IAS Officer के तौर पर नियुक्ति नही मिली।  कारण उनकी नेत्रहीनता थी। इससे भी अजित निराश नही हुए।  तीन साल की कानूनी लडा़ई लड़ कर उन्होंने अपने तथा अपने जैसे अन्य लोगों का अधिकार प्राप्त किया।  अजित की पहली पोस्टिंग त्रिपुरा के अम्बासा में SDM के रूप में हुई। अजित का मानना है कि यदि सही अवसर मिलें और हिम्मत से काम लें

हिम्मत ना हार

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सुभरीत कौर घुम्मन जो एक पैर वाली नृत्यांगना के नाम से विख्यात हैं अदम्य साहस की मिसाल हैं।   India's Got Talent colors के Realty Show से सुर्खियों में आई सुभरीत आजकल Dance realty show झलक दिखला जा में धूम मचा रही हैं।   २१ वर्ष की आयु में स्कूटी से हुई एक दर्घटना में वह घायल हो गईं किंतु डाक्टर की लापरवाही के कारण उन्हें अपना एक पैर गवांना पड़ा। लेकिन इससे उनका हौंसला कम नहीं हुआ। उन्होंने एक बार विनोद ठाकुर ( एक और बिन पावों का नर्तक ) को TV पर नाचते देखा और अपने एक पांव से नाचने का निश्चय किया। अपने साहस के बल पर उन्होंने इसे संभव कर दिखाया।   सुभरीत कौर का कहना है कि किसी भी परिस्थिति में हार ना मानें।  कुछ भी असंभव नही।  एसी ही एक प्रतिभा हैं विनोद ठाकुर। विनोद के दोनों पांव नही हैं. इन्हें India's Got Talent 2 से ख्याति मिली। अपने Break dance के कारण ये विख्यात हैं। Nach Baliye 6 में इन्होंने अपनी पत्नी रक्षा के साथ भाग लिया और Second runner up रहे। इन्होंने विदेशी नृत्य प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया है। 

गूंज की गूंज

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२०१५ के Ramon Magasaysay पुरस्कार से सम्मानित अंशू गुप्ता ने भारत में दान की परंपरा को गौरवशाली बना दिया है। रोटी कपडा़ और मकान इन तीन मूलभूत सुविधाओं में से कपडे़ के महत्व को समझते हुए उन्होंने कपडों के दान पर जोर दिया।  इसके लिए उन्होंने गूंज नाम की एक स्वयंसेवी संस्था का निर्माण किया. यह संस्था लोगों से पुराने कपडे़ लेकर उन्हें लोगों की आवश्यक्ता के अनुसार उपयोगी सामान में या उनके प्रयोग के अनुसार बदल देती है।  उनकी संस्था इस बात का ध्यान रखती है कि इन सामानों को लेने वालों के सम्मान को कोई ठेस न पहुँचे.अतः लोगों को उनके काम के बदले में उनकी आवश्यक्ता का सामान दिया जाता है। इससे लोगों की गरिमा बनी रहती है।  एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे अंशू ने अपने मकसद की प्राप्ति के लिए अपने कैरियर को भी दांव पर लगा दिया।  उन्होंने महसूस किया कि कपड़ा जो मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है पर सबसे कम धयान दिया जाता है। ठण्ड  के मौसम में बहुत से लोग बिना सही कपड़ों के कारण सर्दी लगने से मर जाते हैं। हमारे समाज में हम अक्सर उन लोगों को जो गरीब और बेघर हैं अपने कपडे़ और सामान जो हमारे उपयोग

नियति से मुलाकात

१५ अगस्त १९४७ के दिन हम स्वतंत्र हुए थे। हर वर्ष हम आज़ादी का जश्न मनाते हैं। राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हुए ६९  वर्ष बीत गए हैं। किंतु अभी भी हम कई बेड़ियों में जकड़े हैं। इन्हें तोड़े बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। आज भी समाज कई अर्थहीन परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़ा है। जिनके कारण समाज में अशिक्षा और गरीबी है। जातियों के आधार पर विघटन और गहरा रहा है। इससे समाज में वैमनस्य की स्तिथि उत्पन्न हो रही है। समाज का एक धड़ा आज भी पिछड़ा है जिसे आगे बढ़ने के अवसर नहीं मिलते। इन्हें मुख्यधारा में लाये बिना कोई भी तरक्की अधूरी है। आज भी हमारे समाज में  कन्या के साथ दुर्व्यवहार  होता है ।   उसकी गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है।  उन्हें लड़कों की भांति समान अवसर नहीं दिए जाते। जबकी देश की बेटियों ने कई अवसरों पर अपनी योग्यता साबित की है।  महिलाओं पर होने वाले अत्याचार दिन पर दिन बढ़ रहे हैं। यह कैसी विडंबना है कि जहाँ स्त्री को मातृशक्ति के रूप में पूजा  जाता हो उस समाज में उसकी यह दशा है।  हमें इस विरोधाभास को दूर कर स्त्रियों को उनका अधिकार और सम्मान देने की पहल करनी चाहिए।  हम सभी भ्रष्टाचार के मुद्दे

अद्भुत प्रतिभा बिना बाजुओं के सुन्दर चित्रकारी

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सरिता द्विवेदी इलहाबाद विश्वविधालय के फाइन आर्टस विभाग की छात्रा हैं।  सरिता सुन्दर चित्र और मूर्तियां बनाती हैं।  एक फाइन आर्टस की छात्रा के लिये इसमें नया क्या है।  नया है सरिता का साहस।  सरिता की दोनों भुजाऐं एवं एक पैर नहीं है।  बिजली का करंट लगने से उन्हें अपने हाथ पांव गवाने पडेे़।  किन्तु सरिता अपने दातों के बीच ब्रश फंसा कर एक पैर की मदद से सुन्दर कलाकृतियां बनाती हैं।  सरिता को कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले हैं।  २४ वर्षीय सरिता आत्मविश्वास से परिपूर्ण हैं।  विकलांगता को वह अभिशाप नहीं मानती हैं।  उनका कहना है कि लोगों को शारीरिक रूप से अक्षम लोगें के प्रति अपना रवैया बदलना चाहिए। उनके प्रति अत्यघिक दया भाव दिखाने की बजाय उनके गुणों को देखना चाहिये। 

दशरथ मांझी एक प्रेरणा

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दृढ संकल्प से आप कुछ भी कर सकते हैं। इसका उदहारण हैं दशरथ मांझी। बिहार के गया जिले में जन्मे  दशरथ मांझी ने अपने अथक प्रयास से पहाड़ का सीना चीर कर उसमें से रास्ता बनाया। यह काम उन्होंने महज छेनी और हतौड़ी की मदद से किया। इस काम में उन्हें २२ वर्ष लगे। उनके गाँव में एक पहाड़ था जिसके कारण लोगों को एक बहुत लम्बा चक्कर लगा कर पहाड़ के उस पार काम के लिए जाना पड़ता था। किसी के बीमार पड़ने पर उसे अस्पताल ले जाने में भी दिक्कत पेश आती थी। इसी कारण उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी को भी अपनी जान गवानी पड़ी। सभी परेशान थे किन्तु कोई कुछ नहीं करता था। दशरथ ने निश्चय किया कि वो पहाड़ काट कर उसमे से रास्ता बनाएंगे। लोगों ने उनका मजाक बनाया क्योंकि वहां बिजली भी नहीं थी। यह काम हाथों से छेनी और हतौडी की सहायता से ही हो सकता था। किन्तु लोगों के तानो की परवाह ना कर उन्होंने अपना कार्य आरम्भ किया। उनके दृढ निश्चय को देख लोगों में भी बदलाव आया और मजाक उड़ाने की बजाय उनकी सहायता करने लगे। २२ वर्षों के कड़े परिश्रम से उन्होंने असंभव को संभव कर दिया। उनका जन्म मुसाहार जाती में जो महादलितों में गिनी जाती है हुआ था।

प्रेरणा स्तम्भ नगा नरेश करुतुरा

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IIT मद्रास से computer science में स्नातक तथा बंगलूरू में स्थित Google India में कार्यरत  नगा  नरेश करुतुरा की कहानी बहुत ही प्रेरणा दायक है। बचपन की एक दुर्घटना में इन्हें अपने पांव गवाने पड़े।  इनके दोनों पैर कमर के नीचे से पूरी तरह कटे हैं। इसके बावजूद भी उन्होंने हार नहीं मानी। उनके पिता प्रसाद एक lorry driver थे तथा माँ एक गृहणी। दोनों ही अशिक्षित थे। किन्तु उन्होंने शिक्षा का महत्त्व समझते हुए नगा नरेश को स्कूल भेजा। स्कूल में अपने शिक्षकों और सहपाठियों से उन्हें बहुत प्रोत्साहन मिला। इसी का परिणाम था कि उन्होंने IIT में दाखिला लेने का विचार किया। ईश्वर में आस्था रखने वाले नगा नरेश ने अपनी शारीरिक अक्षमता को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। सदैव ही अपना आत्मविश्वास बनाये रखा।