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2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दैनिक जीवन की विसंगतियों को देखकर लिखने की प्रेरणा मिलती है

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अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, कथनी और करनी के फ़र्क एवं गिरते मूल्यों पर कुठाराघात करने का काम पवन जैन जी बड़ी ही कुशलता से करते हैं. अपने लेखन के जरिए आप की कोशिश ह्रासित होते जीवन मूल्यों की रक्षा करना एवं समाज को नई दिशा दिखाना है. आप मानव स्वभाव को पढने में माहिर हैं. इसी कारण आप की लघुकथाओं के पात्र काल्पनिक नहीं वरन वास्तविक प्रतीत होते हैं. अपनी लघुकथाओं के माध्यम से आप लोगों के मन में विचारों की एक श्रृंखला को जन्म देने में सफल रहते हैं. पवन जी का जन्म 1 जनवरी 1954 को मध्यप्रदेश के सागर शहर में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था. डाक्टर सर हरीसिंग गौर विश्व विद्यालय से आपने विज्ञान विषय से स्नातक तत्पश्चात जबलपुर विश्व विद्यालय से विधि स्नातक एवं अर्थ शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की. विद्यार्थी जीवन से  ही आप सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उत्साह पूर्वक भाग लेते रहे.  1977 से  आप बैंक सेवा में रहे.  विभिन्न पदों पर रहते हुए दिसंबर  2013 में  बैंक  से सेवा निवृत हुए. बैंक सेवा के दौरान आप राजभाषा विभाग सेे जुड़े रहे. हिंदी भाषा के प्रचार में

ग्रामीण परिवेश की सादगी मेरे लेखन में झलकती है

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श्री अनिल शूर आज़ाद का लेखन जीवन के बहुत करीब है. ग्रामीण परिवेश में बचपन व्यतीत होने का असर है कि जीवन के प्रति आपका दृष्टिकोण बहुत खुला हुआ है. गांव की सादगी आपके जीवन के साथ साथ लेखन में भी झलकती है. अनिल जी के लेखन की शुरुआत एक रोचक प्रसंग से हुई. बात वर्ष 1978 के अंतिम दिनों की है जब अनिल जी रेवाड़ी(हरियाणा) के निकट रामपुरा गांव के बलबीर सिंह अहीर हायर सेकेंडरी स्कूल  की नवीं कक्षा का विद्यार्थी थे. एक बार इनके अध्यापक श्री बंशीधर जी ने ' छात्र-असंतोष ' विषय पर निबंध याद करने के लिए कहा. लेकिन अनिल जी ने निबंध याद नहीं किया. अपनी घोषणानुसार मास्टर जी ने लिखित परीक्षा ली. मास्टर जी पिटाई करने में कोई कसर नहीं रखते थे. अतः अनिल जी ने अपनी समझ से जोड़-जाड़कर दो पेज का निबंध तो लिख दिया किंतु डर था कि ज्यादा नहीं तो दो चार डंडे तो खाने ही पड़ेंगे. परंतु अगले दिन आप को बेहद आश्चर्य हुआ जब मास्टर जी ने पिटाई करने की बजाय अपने पास बुलाकर आपके मौलिक लेखन की पूरी कक्षा के समक्ष तारीफ की व लेख पढ़कर भी सुनाया. बस इस प्रोत्साहन ने इनके लेखन की प्रतिभा को फलने फूलने का अवसर प्र

मेरे लिए लेखन अनुभूति से अभिव्यक्ति का सफर है

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 "मैं लिखती हूँ क्योंकि लेखन मेरे लिए सांस लेने जैसा है. इसके बिना मैं जी नहीं सकती हूँ."  यह कहना है कथाकार-कवयित्री कमल कपूर जी का. लेखन से आपको नैसर्गिक लगाव है. इसी कारण इनके लेखन में एकरसता की शुष्कता नहीं बल्कि विविधता की सरसता है. आपके लेखन में प्रकृति की अनुपम छठा देखने को मिलती है. लेखन इनके लिए अपने जीवन की अनुभूतियों को शब्दों में पिरोने का माध्यम है. इनकी प्रेरणास्रोत इनकी साहित्यिक गुरु चित्रा मुदगिल जी हैं. वैसे तो बहुत छोटी उम्र से लेखन कर रही हैं लेकिन 1998 से विधिवत सक्रिय हैं. कमल जी अपने लेखन के माथ्यम से अंधविश्वासों , बेमानी रूढ़ियों , कुरीतियों तथा बीमार मानसिकता जैसी विसंगतियों पर कुठाराघात करती हैं. इन बुराइयों का बहिष्कार कर नई स्वस्थ परंपराएं स्थापित करने पर जोर देती हैं. इनके लेखन के विषय सदैव आसपास के परिवेश से लिए जाते हैं तथा समकालीन घटनाओं पर आधारित होते हैं. कमल जी अपनी अनुभूतियों को शब्दों के जरिए कागज पर उतारती हैं. जिसके कारण पाठकों को अाकर्षित करने में सफल हैं. देश विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आपकी विभिन्न विधाओं की रचन

लेखन मेरे लिए ओढने ,खाने , बिछाने जैसा है

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वीणा वत्सल जी के लिए लेखन एक सहज प्रक्रिया है. लेखन उनके लिए रोजमर्रा के काम की तरह अति आवश्यक है. उनका कहना है "मेरे इर्द-गिर्द शब्द जैसे नाचते रहते  हैं. मुझे बस उन्हें पहचान कर उकेरना होता है." इनकेे लेखन की शुरुआत बचपन से ही हो गई थी. जब यह कक्षा 8 में थी तब इनकी पहली कविता पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'नवभारत टाइम्स ' में प्रकाशित हुई थी. उसके बाद तो इन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. कॉलेज में आते  आते इनकी कवितायें लगातार दैनिक पत्रों एवं कई लघु राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं थीं. आकाशवाणी भागलपुर से इनकी अनेक कविताओं का प्रसारण भी हुआ. लेकिन कुछ व्यक्तिगत कारणों ने इनकी इस यात्रा में व्यवधान उत्पन्न कर दिया. करीब बीस सालों के लंबे अंतराल के बाद इन्होंने पुनः लेखनी थामी. इतने वर्षों से मन में दबी भावनाएं ना सिर्फ कविताओं बल्कि कहानियों एवं उपन्यास के रूप में व्यक्त होने लगीं. परिणाम स्वरूप कई कहानियां अनेक  पत्र - पत्रिकाओं तथा विभिन्न ब्लॉग्स और प्रतिलिपि.कॉम पर प्रकाशित हुईं. इस वर्ष बोधि प्रकाशन द्वारा इनका पहला उपन्यास 'त

एक विचार जिसने बदल दी तस्वीर

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जम्मू और कश्मीर राज्य का लद्दाख क्षेत्र एक ठंडा पठार है. यहाँ का जीवन अत्यंत कठिन है. यह पहाड़ों का रेगिस्तान कहा जाता है.  लद्दाख का यह क्षेत्र पानी की कमी की समस्या से जूझ रहा था. इस समस्या का एक बहुत ही नायाब हल निकाला इस क्षेत्र के एक मैकेनिकल इंजीनियर सोनम वांगचुक ने. वांगचुक ने कृतिम तौर पर ग्लेशियर का निर्माण किया. यह ग्लेशियर पिरामिड के आकार के होते हैं और देखने में बौद्ध स्तूप की तरह लगते हैं. अतः इन्हें 'बर्फ के स्तूप' के नाम से पुकारा जाता है.  सर्दी के मौसम में इस क्षेत्र का तापमान गिरकर -30 से -40 डिग्री सेल्सियश तक पहुँच जाता है. इस दौरान चारों ओर बर्फ जम जाती है. अतः खेती नहीं की जा सकती है. बसंत ॠतु के आगमन पर जब बर्फ पिघलती है तो तालाब पिघली हुई बर्फ के पानी से भर जाते हैं. इसी समय किसान बोआई करते हैं.  पहले लोगों को पानी लेने के लिए बहुत चढ़ाई करनी पड़ती थी. किंतु लोगों को पानी की किल्लत झेलनी पड़ती थी. सोनम ने तालाबों और झरनों की दिशा मोड़ दी. जिससे पानी ऊपर पहाड़ों से धीरे धीरे नीचे उतारा जाता था. पानी नीचे आने पर ठंड से जम जाता था. एक पर्त जम जाने क

साहित्य के माध्यम से समाज की दिशा बदलना चाहता हूँ

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साहित्य समाज को आईना दिखाता है. एक साहित्यकार अपनी लेखनी की शक्ति का प्रयोग कर समाज में व्याप्त कुरीतियों भ्रष्टाचार वैमनस्य आदि पर कुठाराघात कर एक नए समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकता है. श्री सुरेंद्र कुमार अरोड़ा एक ऐसे ही साहित्यकार हैं. अपने लेखन के माध्यम से अरोड़ा जी समाज में निरन्तर घर कर रही संवेदनहीनता और निरन्तर पक रही भ्र्ष्टाचारी मानसिकता की ओर सबका ध्यान खीचना चाहते हैं. अपनी कलम के माध्यम से आप देश विरोधी शक्तियों को सख़्त संदेश प्रेषित करते हैं. ताकि ऐसी ताकतें देश अखंडता को कोई नुकसान ना पहुँचा पाएं. समाज में दिन प्रतिदिन हो रहे मूल्य ह्राश पर रोक लगाने एवं संस्कारहीन प्रवर्तियों को निरुत्साहित करने में अपका प्रयास सराहनीय है. भारतवर्ष में एक अजीब किस्म की मानसिकता घर कर रही है. खुलेपन के नाम पर ऐसे विचारों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो न सिर्फ हमारी संस्कृति के विरुद्ध हैं वरन देश को खण्डित करने का अपराध भी कर रहे हैं. ऐसे षड्यन्त्रों का आप अपनी लेखनी के माध्यम से पर्दाफाश करते हैं. देश व समाज के प्रति इनका प्रेम इन्हें समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा देता

गुनी गुनों की खान

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अक्सर माता पिता अपनी संतान का नाम यह सोंच कर रखते हैं कि नाम का प्रभाव उनके बच्चे के व्यक्तित्व पर पड़ेगा. कुछ बच्चे अपने माता पिता की इस सोंच को सही साबित कर देते हैं. गुनी मिश्रा एक ऐसी ही बच्ची है.  27 मार्च 2006 को जन्मी गुनी  बहुत छोटी उम्र से ही कमाल कर रही है. जब वह महज साढ़े तीन साल की थी तब अंग्रेज़ी का अखबार पढ़ने लगी थी. नर्सरी क्लास में उसे 16 तक पहाड़े याद थे तथा तीन अक्षर वाले शब्द लिख लेती थी. छोटी सी उम्र में ही गुनी गायत्री मंत्र शनि मंत्र आदि शुद्ध उच्चारण के साथ सुनाती थी. गुनी एक अच्छी वक्ता है. स्कूल मे पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी के अवसर पर अपनी स्पीच से बहुत प्रसंशा बटोरती हैं. गुनी चित्रकला में भी दिलचस्पी रखती है. आत्मरक्षा.तथा आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए कराटे भी सीखती है. गुनी अपने माता पिता के साथ अहमदाबाद में रहती है. गुनी के पिता शैलेंद्र नौकरी पेशा हैं जबकि माता अंजली एक गृहणी हैं. गुनी आनंद निकेतन शिलज स्कूल की पांचवीं कक्षा की छात्रा है. इतनी कम उम्र में गुनी चित्रकला, नृत्य, हस्तलेखन, संस्कृत श्लोकों के गायन आदि कई प्रकार की प्रतियोगिताओं में हिस्सा ल

ऊर्जा संरक्षण व स्वच्छ वातावरण की ओर

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सजल घोष ऊर्जा के संरक्षण संवर्धन तथा सही प्रयोग के बारे मे लेख लिखते हैं. उनके लिखे लेख बहुत सराहे जाते हैं. वर्तमान में वह गुरूग्राम के माने हुए बिज़नेस स्कूल Management Development Institute में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं. अपने पढ़ाने के नए तथा वैज्ञानिक तरीके के कारण अपने छात्रों के बीच बहुत प्रसिद्ध हैं. सजल पिछले बीस वर्षों से एक दुसाध्य रोग से पीड़ित हैं. जिसके कारण उनका शरीर 90% अक्षमता से ग्रसित है. वह चलने फिरने के लिए Wheelchair पर आश्रित हैं. अपने बिगड़ते स्वास्थ के कारण इन्हें कई बार अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. परंतु साहस के धनी सजल ने हार नही मानी. जादवपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने M. Tech तथा Ph.D किया. इसके अतरिक्त मुंबई के IGIDR से M.Phil पूर्ण किया. सजल ने अपने कैरियर का आरंभ confederation of Indian Industries (CII) में उनके ऊर्जा विभाग से किया. यहाँ इनका प्रमुख कार्य CII को शोध के क्षेत्र में आवश्यक मदद प्रदान करना था. इसके अतरिक्त केंद्रीय मंत्रालयों तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिल कर ऊर्जा संबंधी मुद्दों पर कार्य करना था. 2006 में सजल ने CII छोड़

हमारी हिंदी भाषा फले फूले

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अपने देश से दूर रह अपनी माटी और अपनी भाषा के प्रति लगाव बहुत बढ़ जाता है. तब इच्छा होती है कि कोई अपनी भाषा में हम से बात करे. बैंक ऑफ इंडिया की जोहांसबर्ग शाखा के मुख्य प्रबंधक श्री विनय कुमार जी अगस्त 2013 से दक्षिण अफ्रीका में कार्यरत हैं. अपने इस प्रवास के दौरान विनय जी ने एक पुस्तक लिखी है 'किसी और देश में' . यह पुस्तक विनय जी की लघु कथाओं एवं कहानियों का संग्रह है.  मूलतः बनारस के रहने वाले विनय जी का मानना है कि लेखन का अर्थ केवल लिखना ही नही है. वरन इसके लिए आवश्यक है कि समाज की नब्ज़ को परखा जाए. लेखन ना सिर्फ अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है बल्की इसके द्वारा समाज को भी सही दिशा दिखाई जा सकती है.  विनय जी लेखन के लिए विषय का चुनाव बहुत सावधानी से करते  हैं. यह विषय अक्सर वर्तमान समस्याओं, राजनीति और समाज से जुड़े हुए होते हैं.  पढ़ने की आदत के कारण साहित्य में विनय जी की रुचि बचपन से ही रही. बैंक के व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर वह लेखन भी करते रहे. मूलतः विनयजी एक लघुकथाकार हैं लेकिन कभी कभी कहानियां और गद्य लेखन भी करते हैं.  पिछले वर्ष विनय जी

कर दिया कमाल

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2016 के लिए गए पैरालिंपिक्स दल के सदस्यों ने देश का नाम रौशन कर दिया. जहाँ ग्रीष्मकालीन ओलंपिक्स में भारत के कुल 117 प्रतिस्पर्धियों ने भाग लिया किंतु हम केवल दो पदक (एक रजत एवं एक कांस्य) ही जीत पाए. वहीं पैरालिंपिक्स में गए 18 खिलाड़ियों ने कुल चार पदक (दो स्वर्ण, एक रजत तथा एक कांस़्य) जीत कर साबित कर दिखाया कि शारीरिक अक्षमता के बावजूद वह किसी से कम नही हैं. यदि उचित अवसर मिले तो वह भी देश की शान बढ़ा सकते हैं. आइए उन खिलाड़ियों के जीवन तथा उनके संघर्ष पर एक नज़र डालते है. मरियप्पन थंगावेलू  पुरुषों की हई जम्प T-42 प्रतियोगिता में 1.89 मी. की छलांग लगा कर मरियप्पन ने भारत को 2016 पैरालिंपिक्स में पहला स्वर्ण पदक दिलाया.  पाँच वर्ष की आयु में मरियप्पन का पैर बस के नीचे आकर कट गया. अपने पीटी शिक्षक की सलाह पर इन्होंने हाई जम्प को खेल के रूप में स्वीकार किया. इस साल मार्च में 1.60 मी. की निर्धारित सीमा से कहीं अधिक 1.78 मी. की जम्प लगाकर मरियप्पन ने पैरालिंपिक्स के लिए क्वालीफाई किया था. तब से उनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया था. जिसके कारण वह स्वर्ण पदक जीत पाए. वरुण सिंह भाटी

हिंदी को लोकप्रिय बना रहे हैं यह फेसबुक ग्रुप

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लोगों को जोड़ने का एक प्रसिद्ध माध्यम है सोशल साइट ' फेसबुक '. फेसबुक ना सिर्फ लोगों को जोड़ने का कार्य कर रहा है बल्की फेसबुक पेज तथा ग्रुप के माध्यम से लोगों में सकारात्मक विचारों का प्रचार भी किया जा रहा है. फेसबुक में कई ऐसे ग्रुप हैं जो राष्ट्रभाषा हिंदी को लोकप्रिय बनाने की दिशा में कार्यरत हैं. यह ग्रुप हिंदी लेखन को प्रोत्साहन प्रदान कर रहे हैं. यहाँ नवोदित लेखकों को ना सिर्फ उनकी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर प्रदान किया जाता है बल्कि उसे और निखारने के लिए यह ग्रुप मार्गदर्शन भी प्रदान कर रहे हैं. इस लेख में ऐसे ही कुछ फेसबुक समूहों का वर्णन किया गया है. लघु कथा के परिंदे हिंदी में लघु कथा लेखन को बढ़ावा देने में यह ग्रुप सराहनीय कार्य कर रहा है. हर माह की पहली तिथि को ग्रुप के सदस्यों को दस विषय दिए जाते हैं. इन विषयों का चुनाव सावधानीपूर्वक किया जाता है. विषय ऐसे होते हैं जो लेखक की चिंतन प्रक्रिया को परिमार्जित करने में सहायक होते हैं. रचनाकार को कम से कम सात विषयों पर लिखना अनिवार्य होता है. अधिकतम प्रविष्टियों की कोई सीमा नही होती है. लेखक अधिकाध

शिक्षक जिसने दिखाई समाज को नई दिशा

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सरकारी तंत्र में व्याप्त अव्यवस्था की शिकायत हम सभी करते हैं. अक्सर यह कहते हुए हथियार डाल देते हैं कि इस व्यवस्था में कोई सुधार नही किया जा सकता है.  हमारे बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जो हार मानने की बजाय हालात बदलने का प्रयास करते हैं और उसमें सफल भी होते हैं. ऐसी ही एक मिसाल पेश की है सरकारी शिक्षक अवनीश यादव ने.  गाजीपुर जिले के बभनौली गांव के रहने वाले अवनीश यादव की नियुक्ति प्राथमिक शिक्षक के रूप में 2009 में गौरी बाजार के प्राथमिक विद्यालय पिपराधन्नी गांव में हुई थी. किंतु इस प्राइमरी स्कूल का हाल ऐसा था कि यहाँ न तो बच्चे पढने आते थे और न ही शिक्षक स्कूल में पढ़ाने जाते थे. अवनीश ने ऐसी स्थिति देखी तो स्वयं घर-घर जाकर लोगों से सम्पर्क किया. गांव में मजदूरी करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक थी. इन लोगों की सोंच थी कि जितने ज्यादा हाथ उतनी ज्यादा कमाई. अतः वह बच्चों को स्कूल नही भेजना चाहते थे. ऐसी स्थिति में गांव वालों को समझाना और बच्चों को स्कूल लेकर आना एक कठिन चुनौती थी. इस कठिन कार्य को करने का निश्चय अवनीश ने कर लिया था. अतः वह गांव वालों को शिक्षा का महत्व समझाते. श

संगीत मेरी प्रेरणा है

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यदि आगे बढ़ने की चाह हो तो कुछ भी आपका रास्ता नही रोक सकता है. यह साबित कर दिखाया है सुधांशु व्यास ने. Muscular Dystrophy नामक बीमारी से ग्रसित सुधांशु अपनी हिम्मत और हौंसले के बल पर गायन के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं.  दस साल की उम्र में जब सुृधांशु को अपनी बीमारी का पता चला तो यह जानकर वह बहुत दुखी हुए कि उन्हें अब अपना जीवन व्हीलचेयर पर बिताना पड़ेगा. यह परिस्थिति बहुत पीड़ादाई थी. इस कठिन समय में संगीत के सात स्वरों ने उन्हें इस दुख से उबरने में सहायता की. जब भी वह संगीत सुनते तो अपनी तकलीफ को भूल कर खुशियों के संसार में चले जाते थे. अतः सुधांशु के परिवार ने उन्हें संगीत की तालीम देने का फैसला किया.  सुधांशु का जन्म 3 जुलाई 1999 में एक संगीत प्रेमी घराने में हुआ. सुधांशु के दादा निरंजन व्यास जी को संगीत में गहरी रुचि है. इनके पिता तथा चचेरे भाइयों को भी संगीत में रुचि है. सुधांशु के परदादा श्री श्याम सुंदर व्यास जी एक स्वतंत्रता सेनानी थे. सुधांशु अब तक दस से भी अधिक स्टेज प्रस्तुतियां कर चुके हैं. रेडियो के एफ एम चैनल 94.3 पर सुधांशु ने गाना भी गाया है. सुधांशु को रा

'एक नया संसार' पैरलंपिक्स 2016

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7 सितंबर से 18 सितंबर तक ग्रीष्मकालीन पैरालंपिक्स का आयोजन हो रहा है. इन खेलों की मेज़बानी भी रियो डिजिनेरो ही कर रहा है.  इस आयोजन का मोटो है 'A new world ( Um mundo novo). पैरालिंपिक्स एक ऐसा खेल आयोजन है जिसमें शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे प्रतियोगियों को विभिन्न खेल स्पर्धाओं में अपनी दक्षता दिखाने का अवसर प्रदान किया जाता है.  29 जुलाई 1948 को लंदन ओलंपिक्स के आरंभ समारोह में डॉ. गटमॉन ने पहली व्हीलचेयर प्रतियोगिता आयोजित की. इसमें तीरंदाज़ी की प्रतियोगिता में 16 महिला तथा पुरुष प्रतियोगियों ने भाग लिया. आधिकारिक तौर पर पहले पैरालिंपिक्स खेल 1960 में रोम इटली में आयोजित किए गए. इसमें 23 देशों के 400 प्रतियोगियों ने भाग लिया.  भारत ने सर्वप्रथम 1968 के पैरालिंपिक्स में भाग लिया. उसके बाद 1972 में किंतु फिर 1976 तथा 1980 में भारत की अनुपस्थिति रही. 1984 के बाद भारत लगातार इस आयोजन में भाग लेता रहा.  भारत को पहला स्वर्ण 1972 में मुरलीकांत पेटकर ने दिलाया. 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी में पेटकर ने 37.331 सेकेंड्स का विश्व रिकार्ड बनाया.  2016 पैरालिंपिक्स के लिए भारत की

विरासत में हमें जो भारतीय गौरव पूर्ण धरोहर है वह अतुलनीय है

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मनुष्य जहाँ जाता है अपने साथ वहाँ अपनी धर्म और संस्कृति को भी ले जाता है. ज्ञान राजहंस जी भी ऐसे ही व्यक्ति हैं जिन्होंने भारत से हजारों मील दूर कनाडा की धरती में भारतीय धर्म एवं दर्शन के बीज रोपित किए हैं. आपकी तपस्या के परिणाम स्वरूप वहाँ भी सनातन धर्म और दर्शन की जड़ें मजबूत हुई हैं. गत पैंतीस सालों से ज्ञान जी 'भजनावली' के नाम से प्रसारण के माध्यम से वैदिक संस्कृति का प्रचार कर रहे हैं. भजनावली एक गैर व्यवसायिक संस्था है. इसका आरंभ 1 अप्रैल 1981 को हुआ था. आरंभ में यह संस्था प्रत्येक रविवार को एक घंटे के रेडियो प्रसारण के माध्यम से वैदिक चिंतन से संबंधित सामग्री लोगों तक पहुँचाती थी. 1998 से 2006 तक यह प्रसारण वेबसाइट के माध्यम से इंटरनेट पर भी उपलब्ध रहता था. 2007 में रेडियो प्रसारण समाप्त कर 'Bhajnawali.com' नामक वेबसाइट के जरिए ही वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार किया जाता है. इस वेबसाइट पर वैदिक दर्शन व सिद्धांत से संबंधित पठनीय व श्रव्य सामग्री उपलब्ध है. वेबसाइट के संचालन की लागत प्राप्त दान की राशि से पूरी की जाती है. भजनावली की अनुसंशा Britannica encycl

संवेदनाओं के पंख

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साहित्य को नेत्रहीन व्यक्तियों तक पहुँचाने की अनोखी पहल है ब्लाग संवेदनाओं के पंख/ दिव्य दृष्टि. यहाँ पर लेखन की विभिन्न विधाओं जैसे आलेख, कहानी, लघुकथा तथा कविताओं को ऑडियो के रूप में परिवर्तित कर प्रकाशित किया जाता है. श्रव्य रूप में रचनाएं नेत्रहीनों तक सुगमता से पहुँच जाती हैं और वह इन रचनाओं का आनंद उठा सकते हैं. ब्लाग में हर आयु वर्ग से संबंधित रचनाओं को सम्मिलित किया जाता है. इसके ज़रिए श्रोताओं को साहित्यिक रचनाओं के साथ साथ  समसामायिक विषयों, ऐतिहासिक घटनाओं तथा फिल्म जगत से संबंधित मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक जानकारियां उपलब्ध कराई जाती हैं.  इस ब्लॉग की एक और विशेषता यह भी है कि इसे निरंतर अपडेट किया जाता है. जाने-पहचाने साहित्यकारों, कवियों, लेखकों की रचनाओं के 600 से अधिक ऑडियो का इसमें समावेश है. संवेदनाओं के पंख ब्लॉग का आरम्भ अगस्त 2007 में हुआ. अक्टूबर 2015 से इसमें दिव्य दृष्टि नाम जोड़कर नेत्रहीन लोगों के लिए ऑडियो शुरू किया गया. इस ब्लाग का संचालन डॉ. महेश परिमल एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती भारती परिमल द्वारा किया जाता है. अधिकांशतः रचनाओं को आवाज़ देने का कार्य श्री

स्कूल आता है बच्चों के पास

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बांग्लादेश बाढ़ की समस्या से ग्रसित है. हर साल लाखों लोग बाढ़ के कारण अपने घरों से विस्थापित हो जाते हैं. ऐसे में उनका जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है. इसका सबसे अधिक असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है.  इस समस्या का अनूठा उपाय निकाला है बांग्लादेश के आर्किटेक्ट मोहम्मद रिज़वान ने. इन्होंने तैरते हुए स्कूल का निर्माण किया है जो 100 नावों पर चलाए जाते है. इन तैरते स्कूलों में पुस्तकालय, कंप्यूटर एवं स्वास्थ संबंधी सुविधाएं उपलब्ध हैं.  बाढ़ के दिनों में ये तैरते स्कूल बच्चों को घर से लेते हैं तथा स्कूल पूरा होने पर वापस घर छोड़ देते हैं. बच्चों की पढ़ाई नाव पर संचालित कक्षा में होती है जिसमें 30 विद्यार्थियों के बैठने की व्यवस्था है.  यह नावें सौर्य ऊर्जा से संचालित होती हैं. इन पर प्रकाश की व्यवस्था भी सौर्य ऊर्जा से ही होती है. प्रोजक्ट की लागत विभिन्न संस्थाओं से प्राप्त वित्तीय मदद से होता है. यह बदलते पर्यावरण से उत्पन्न समस्या का सामना करने का एक सकारात्मक तरीका है.  यह प्रोजक्ट सिधुलाई स्वानिर्वार संघष्टा नामक संघ द्वारा चलाया जा रहा है. इसका प्रतिनिधित्व मोहम्मद रिज़वान करते है

अनुभूतियों को शब्दों का जामा पहनाता हूँ

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राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका सही स्थान दिलाना तथा उसे कार्यकारी भाषा बनाना डॉ. भोज कुमार मुखी के जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है. देना बैंक में अपने 33 वर्षों के कार्यकाल में हिंदी भाषा को लागू करने का सराहनीय कार्य किया. बैंक की  शाखाओं के प्रशासनिक कार्यालय तथा क्षेत्रीय कार्यालय को राजभाषा कार्यान्वयन के लिए प्रेरित करने के लिए 5 बार प्रधान कार्यालय द्वारा प्रथम पुरस्कार मिला. राजभाषा विभाग गृहमंत्रालय द्वारा कार्यालय को और  डॉ. मुखी को अलग अलग सम्मानित भी किया गया. डॉ. मुखी विभिन्न बैंकों के अहिंदी भाषी कर्मचारियों के हिंदी प्रशिक्षण के प्रति समर्पित रहे.  लेखन के प्रति डॉ. मुखी में बचपन से ही रूझान था. कॉलेज में हिंदी साहित्य सभा का अध्यक्ष पद संभाला. उन्हीं दिनों कॉलेज की मैगज़ीन के लिए लिखते रहे. पहले लेखन व्यवस्थित नही था. अक्सर कागज़ के टुकड़ों पर लिख कर इधर उधर फेंक दिया करते थे. किंतु आपकी जीवन संगिनी श्रीमती सविता मुखी जी ने उन्हें ना सिर्फ व्यवस्थित किया वरन लेखन के लिए प्रेरित भी किया. उनसे प्रेरणा पाकर डॉ. मुखी ने बैंक की पत्रिका के लिए लिखना शुरू किया. उसके संपादन का क