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यादें

यादें हमारे बीते जीवन के खट्टे मीठे पलों का एक खज़ाना होती हैं। जो हमारे ह्रदय के किसी कोने में दबी होती हैं। एक झलक, किसी  पन्ने पर लिखे कुछ शब्द, मिट्टी की सोंधी खुशबू , किसी की मुक्त हंसी कुछ भी दिल की गहराईयों में छिपे यादों के इस सागर में हलचल मचा देती है। जब कभी तन्हाई में  हम बहुत अकेलापन महसूस करते है तब हमारे मानस पटल पर किसी चलचित्र की भांति हम इन्हें देख सकते हैं। इन यादों के साथ कभी हंसते हैं तो कभी हमारी आँखें छलक उठती हैं। वैसे बीती बातों को याद करना आसान है किन्तु जब कोई हमें उनके बारे में लिखने को कहता है तो हम दुविधा में पड़ जाते हैं। क्या सचमुच जो हमारे जीवन में बीता वह लिखने के योग्य है। यदि हाँ तो कहाँ से प्रारंभ करें। किन घटनाओं का जिक्र करें और किन्हें छोड़ दें  इत्यादि। सबसे बड़ी बात यह है की जो यादें हमारे व्यक्तिगत जीवन से इतनी गहराई से जुडी हैं उन्हें सब के साथ साझा करने में एक झिझक सी होती है। क्योंकि अपने व्यक्तिगत पलों को दूसरों के साथ बाटने में पूर्ण ईमानदारी बरतने की ज़रुरत होती  है। हम तोड़ मरोड़ कर अपने मुताबिक़ उन्हें पेश नहीं कर सकते हैं। यही कार

अमीरी और गरीबी

अमीरी और गरीबी। मानव समाज से ये दो शब्द गहराई से जुड़े हुए हैं। बहुधा अमीरी और गरीबी को तय करने के लिए व्यक्ति की आर्थिक स्तिथि को मानदंड बनाया जाता है। वह व्यक्ति जो आर्थिक रूप से सक्षम है। जिसके पास पैसा, अपना मकान, कार इत्यादि हो वह अमीर और जिसके पास यह सब ना  हो वह गरीब माना जाता है। पैसा मानव जीवन का आवश्यक अंग है। इसके आभाव में व्यक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाता है। यही कारण है की जीवन के लिए ज़रूरी चार पदार्थों में एक अर्थ भी माना गया है। अतः व्यक्ति के लिए अर्थ का सर्जन आवश्यक है। इसके आभाव में व्यक्ति के जीवन में अनेक विषमताएं आ जाती हैं। व्यक्ति सुचारू रूप से अपना तथा अपने परिवार का पालन नहीं कर सकता है। बच्चों को उचित शिक्षा नहीं मिल पाती है जिसके कारण वो जीवन में आगे नहीं बढ़ पाते हैं। कई बार कुंठाग्रस्त होकर वो सही पथ से च्युत हो जाते हैं। इसका प्रभाव समाज पर पड़ता है। गरीबी किसी भी समाज के लिए अभिशाप होती है। इसके कारण समाज में कई कुरीतियाँ जन्म लेती हैं। अतः गरीबी का उन्मूलन ही किसी भी समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए। किन्तु बहुत अधिक दौलत भी

पारिवारिक सौहार्द

मानव समाज में पारिवारिक इकाई के अंतर्गत बच्चे युवा एवं बुजुर्ग तीन पीढ़ियों के लोग आते हैं। इन तीनों पीढ़ियों में आयु के अंतर के कारण सोंच में भी अंतर होता है। अक्सर सोंच का यह अंतर आपसी टकराव का कारण बन जाता है। सोंच में अंतर स्वाभाविक है। हर समय का अपना एक सामजिक परिवेश होता है। जो हर पीढ़ी में एक नई सोंच को जन्म देता है। विचारों में परिवर्तन आवश्यक भी है क्योंकि जिस समाज में परिवर्तन नहीं आता वहां ठहराव की स्तिथि पैदा हो जाती है। समाज बहती धारा की तरह होना चाहिए जिसमे समय के साथ साथ बदलाव आते रहे नहीं तो समाज मृतवत हो जाता है। परिवर्तन किसी समाज के जीवित होने की निशानी है। अतः विचारों का अंतर तो ठीक है किन्तु उसके कारण उपजने वाले मतभेद जो मनमुटाव का कारण बन जाते हैं चिंता का विषय हैं। आखिर ऐसी स्तिथि आती क्यों है। इसका कारण है एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने   का प्रयास न करना। बुजुर्गों को शिकायत रहती है की नई पीढ़ी गैरजिम्मेंदार एवं आत्म केन्द्रित है। उन्हें दूसरों की भावनाओं की कद्र ही नहीं। दूसरी तरफ युवाओं का कहना है की बुजुर्गों की सोंच दकियानूसी है। वो हमारे नज़रिए को स

धर्म की प्रासंगिकता

वर्तमान समय में धर्म के नाम पर लोगों में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। सभी अपने अपने धर्म को लेकर बहुत ही संवेदनशील हैं। अतः अक्सर धर्म के नाम पर लोगों में झगड़े हो जाते हैं।  धर्म के नाम पर पाखण्ड भी बढ़ता जा रहा है। अक्सर कुछ लोग जनता की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठा कर उन्हें ठग लेते हैं। धर्म के नाम पर एक उद्योग सा बनता जा रहा है। इसके अतरिक्त धर्म के नाम पर अनेक कुरीतियों का प्रचलन  है। धर्म भीरु लोग बिना उचित विवेक का प्रयोग किये उन कुरीतियों का पालन करते रहते हैं। अतः कुछ लोग जो स्वयं को इस धर्मान्धता से नहीं जोड़ पाते हैं अब धर्म की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न उठाने लगे हैं। प्रश्न उठता है की धर्म का अर्थ क्या है। क्या कुछ रीति रिवाजों का पालन ही धर्म है। धर्म व्यक्तियों को आत्मिक रूप से बलवान बनाने के लिए है या उन्हें कमज़ोर बनाने के लिए। सबसे ऊपर क्या सच में हमें धर्म की आवश्यकता है। धर्म एक जीवन शैली है जो समाज को एक व्यवस्था प्रदान करती है। प्रत्येक कर्म जो हमारे आत्मिक विकास में सहायक हो, जो हमें एक उत्तम व्यक्ति बनाये, जो हमें हमारे जीवन के परम लक्ष्य ' ईश्वर'

पूर्ण समर्पण

ईश्वर अनुभूति का विषय है न की वाद विवाद का अतः ईश्वर तक पहुँचने का सर्वोत्तम मार्ग है पूर्ण समर्पण का भाव। पूर्ण समर्पण केवल प्रेम से ही संभव है। प्रेम की वह परम स्तिथि जहां व्यक्ति संसारिकता को त्याग कर सिर्फ प्रभु चरणों में स्वयं को समर्पित कर देता है भक्ति कहलाती है। भक्ति का प्रारंभ ईश्वर के प्रति आकर्षण से होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे सांसारिक प्रेम का आरम्भ प्रेमी के प्रति आकर्षण से होता है। व्यक्ति निरंतर ईश्वर का चिंतन करता है। यह निरंतर चिंतन ही प्रेम का आधार बनता है। व्यक्ति का हर प्रयास ईश्वर को प्रसन्न करने का होता है। ईश्वर का पूजन अर्चन करना, उन्हें स्नान कराना, भोग अर्पित करना इत्यादि द्वारा वह ईश्वर की सेवा करता है। यह तो प्रारंभिक अवस्था के लक्षण हैं। चरम अवस्था तो तब आती है जब व्यक्ति बृज की गोपियों की भांति अपना सर्वस्व ईश्वर को अर्पण करने को तत्पर हो जाता है। जिनके लिए कृष्ण को प्रसन्न रखने के अतिरिक्त को और प्रयोजन नहीं था। उन्हें लोक निंदा तक की परवाह नहीं थी। धीरे धीरे वह स्तिथि आ जाती है जहाँ समस्त संसार ईश्वरमय  लगने लगता है। यही भक्ति की अंतिम स्तिथि है

पंचतंत्र की ज्ञानवर्धक एवं रोचक कहानियां

वर्तमान समय में हमारे बच्चों को मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं। इनमे सबसे प्रमुख है टी . वी . जिस पर प्रसारित होने वाले कार्टून बच्चों को बेहद पसंद आते हैं। पर बच्चे इनसे क्या सीखते हैं यह सोंच का विषय है।  कई कार्टून चरित्र जो बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं जैसे स्पाइडरमैन, बैटमैन, बेन टेन इत्यादि। बच्चे इन चरित्रों से बहुत प्रभावित होते है और उनका अनुशरण करने का प्रयास करते हैं। इन चरित्रों में किसी न किसी शक्ति को दर्शाया जाता है जिसके द्वारा वो आश्चर्यजनक कारनामों को अंजाम देते हैं। अक्सर ऐसे किस्से सुनने में आते रहते हैं जहाँ ऐसे ही कारनामों की नक़ल करते हुए बच्चे अपनी जान जोखिम में डाल लेते हैं। किन्तु उससे भी अधिक घातक यह है कि बच्चों के मन में यह धारणा बैठ जाती है कि कुछ कर दिखने के लिए हमें किसी असाधारण शक्ति कि आवश्यकता होती है। अतः वे ऐसी किसी शक्ति की कामना करने लगते हैं। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि हम उन्हें इस बात का अहसास कराएँ की अपनी समस्याओं से निपटने के लिए हमें किसी असाधारण शक्ति की नहीं अपितु थोड़ी सूझबूझ एवं आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। बच्चे किस

तत् त्वम् असि

हम हैं कौन, हमारी वास्तविक पहचान क्या है, क्या हम महज हाड़ मांस से बने शरीर मात्र हैं या इससे भी अलग हमारी कोई पहचान है। ये प्रश्न सृष्टि के प्रारंभ से ही मानव मन को उद्वेलित करते रहे हैं। इन प्रश्नों का उत्तर पाने हेतु मानव अध्यात्म के धरातल पर कदम रखता है। हम सिर्फ शरीर मात्र  ही नहीं हैं वरन शरीर से पृथक ही हमारा वास्तविक अस्तित्व है। हम सभी में उस परम शक्ति का वास है। 'आत्मा' ही हमारा वास्तविक स्वरुप है। हम सभी में असीमित क्षमताएं हैं।  छान्दोग्य उपनिषद् का महावाक्य है  'तत् त्वम् असि' इसका अर्थ है तुम वो हो। आखिर इसका क्या अर्थ हुआ। इसका अर्थ है हम वही हैं जिसकी हमें तलाश है। हम सभी को पूर्णता की खोज है। हम सभी शक्ति, शांति, ज्ञान की अभिलाषा रखते हैं। हम जिन वस्तुओं को बहार तलाशते हैं वे हमारे भीतर ही विद्यमान है। हम अपने आप में सम्पूर्ण हैं। हम परम शक्ति, शांति एवं ज्ञान के भण्डार हैं। आवश्यकता स्वयं के भीतर झांकने की हम। हम अपने मन की गहराइयों में जितना अधिक उतरेंगे उतना ही अधिक इस सत्य के निकट होंगे।  'तत् त्वम् असि' अद्वैत के सिद्धांत पर आध

आखिर क्यों

एक समय था जब  अक्सर मेरे ह्रदय में यह प्रश्न उठता था। हे प्रभु ' आखिर क्यों' तुमने मुझे यह जीवन दिया जिसमे इतनी तकलीफें हैं, इतना संघर्ष है, इतना कष्ट है। आखिर क्यों मुझे दूसरों सा नहीं बनाया। क्यों मैं औरों की तरह चल फिर नहीं सकता। क्यों मुझे रोज़मर्रा के कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। मैं जितना अधिक इस विषय में सोंचता था उतना अधिक दुखी होता था। मैंने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर दिया। ईश्वर नहीं है। होता तो मुझे इतना कष्ट क्यों देता। यदि ईश्वर है भी तो वह निर्दयी है। तभी तो मुझे यह तकलीफ दी है। मन में अवसाद घर करने लगा। मेरे रोने, खीजने या शिकायत करने का कोई परिणाम नहीं निकला। निकलता भी कैसे। अवसाद के कीचड़ में कमल नहीं खिलता। उसमें तो केवल कीड़े पड़ते हैं जो आपके जीवन को दुर्गंधमय बना देते हैं। किन्तु ईश्वर दयालु है। उसने मेरी शिकायत एवं उसके प्रति दिखाई गयी कृतघ्नता के बावजूद मुझे उस कीचड़  से उबार लिया। कोई अकस्मात् घटना घटी हो ऐसा नहीं हुआ किन्तु कुछ छोटे छोटे संकेतों के माध्यम से उसने मेरी सोंच की दिशा बदलनी शरू की। कभी किसी पुस्तक के किसी

जीवन जीने के लिए है

हमारे प्रथम रुदन से लेकर अंतिम श्वाश  तक जीवन अनुभवों का एक सिलसिला है। सम्पूर्ण जीवन काल में हम प्रेम और घृणा, मान और अपमानं, ख़ुशी और गम आदि द्वंदों के बीच में झूलते रहते है। एक रोलर कोस्टर की भांति इसके उतार चढ़ाव हमें आकर्षित करते हैं।          "जीवन साईकिल की सवारी की भांति है। संतुलन बनाये रखने के लिए आगे बढ़ते रहना  आवश्यक है।"         [अल्बर्ट  आइंस्टीन] उतार चढ़ाव तो जीवन का हिस्सा हैं। जीवन में कठिनाईयों का आना जाना लगा रहता है किन्तु हमें किसी भी परिस्तिथि में हार मानकर जीवन के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए। जीवन तो बहती नदी  है। यदि इसका बहाव रुक जाए तो इसमें सड़ांध आ जाएगी। अतः हमें हर स्तिथि में आगे बढ़ते रहना चाहिए।   "जीवन स्वयं को खोजने का नाम नहीं। जीवन स्वनिर्माण के लिए है।"    [जार्ज बर्नार्ड शॉ] जीवन हम सभी को यह अवसर प्रदान करता है की हम अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सकें। हम सभी में कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होती है। आवश्यकता है उसे पहचान कर उसे उभारने की। जीवन संसार के रंग मंच पर खेला जा रहा एक अनंत नाटक है जिसमें हम सभी अपनी भूमिका नि

हार न मानें लड़ें

जीवन में सभी के साथ कोई न कोई कठिनाई होती है। कठिनाईयां तो जीवन का एक हिस्सा हैं। उनसे हार नहीं मानना चाहिए। कठिनाईयों से लड़कर ही उनसे पार पाया जा सकता है न कि उनके सामने घुटने टेक कर। धैर्य, हिम्मत एवं थोड़ी सी सूझ बूझ से मुश्किलों का हराया जा सकता है। किन्तु अक्सर हम समस्याओं से इतने भयभीत हो जाते हैं कि अपना धैर्य खो बैठते हैं। समस्याओं के प्रति हमारा नकारात्मक रवैया हमें अधिक तकलीफ पहुंचाता है। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने भीतर सकारात्मक सोंच का विकास करें। सकारात्मक सोंच हमें बड़ी से बड़ी समस्या से लड़ने की प्रेरणा देती है। आवश्यकता है की हम समस्याओं से हार न मानकर उनसे लड़ने का इरादा बनाएं।  जीवन के प्रति  हमारा दृष्टिकोण हमारे जीवन में एक अहम् भूमिका निभाता है। सकारात्मक सोंच रखने वाला व्यक्ति सदैव स्तिथि के उजले पक्ष को देखता है। वह सदैव इस बात पर यकीन करता है कि समस्या के समाधान का कोई न कोई मार्ग ढूंढा जा सकता है। जबकि नकारात्मक सोंच वाला व्यक्ति समस्यायों से डर कर उनसे पीछा छुड़ाने का प्रयास करता है। हमारे पास दो विकल्प हैं या तो अपने दुखों का रोना रोयें या फिर समस्या का सामन

आत्मविश्वास एक शक्ति

मानवता  का इतिहास ऐसे लोगों की कथाओं  से भरा है जिन्होंने अपने अदम्य साहस के बल पर वो कर दिखाया जो मनुष्य की क्षमताओं से परे मालूम पड़ता था। ऐसी  उनमें कौन सी विशेष शक्ति थी जिसके बल पर वो ऐसे कार्य कर सके। वह शक्ति है आत्मविश्वास की जिसने उन्हें ऊंचाईयों को छू लेने को प्रेरित किया। आत्मविश्वास के बल पर उन्होंने बड़े सपने देखे और उन्हें प्राप्त किया। " महान कार्य करने के लिए हमें न सिर्फ बड़े लक्ष्य रखने चाहिए  वरन उन पर विश्वाशस  भी करना  चाहिए।"                                                                                                                [ अनातोले फ्रांस] आत्मविश्वास एक प्रेरक शक्ति जो हमें जीवन में आगे बढ़ने तथा कुछ कर दिखाने के लिए प्रोत्साहित करती है। कुछ कर दिखाने के लिए हमें मज़बूत शरीर की नहीं बल्कि मज़बूत इरादों की आवश्यता होती है। आत्मविश्वास ही हमारे इरादों को मज़बूत करता है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी होती है वह् कभी भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है। जो स्वयं पर विश्वास नहीं करता वो किसी भी वास्तु पर विश्वास नहीं कर सकता है। " ब्

रिश्ते बहुमूल्य निधि

सामाजिक प्राणी होने के नाते हम सभी रिश्तों से घिरे रहते हैं। रिश्ते सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार होते हैं। रिश्ते हमें आपस में बांधे रहते हैं। हमारे रिश्ते जितने मज़बूत होते हैं सामजिक ढांचा उतना ही मज़बूत बनता है। प्रेम संबंधों को सबल बनाता है। स्वस्थ संबंधों के लिए आवश्यक है की हमारे बीच एक दूसरे के लिए आदर तथा आपसी समझबूझ हो। एक दूसरे के हित लिए अपने  निजी स्वार्थों का त्याग रिश्तों को दीर्घायु बनाता है। रिश्ते हमें बहुत कुछ देते हैं। आपसी प्रेम एवं सहयोग तथा एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना हमें पूर्णता प्रदान करती है। एक रिश्ते को बनाये रखने का दायित्व उसमें सम्मिलित दोनों पक्षों का होता है। केवल एक पक्ष रिश्ते को नहीं बनाए रख सकता है। यदि एक व्यक्ति ही इस दिशा में प्रयास करता है तथा दूसरा उदासीन रहता है तो एक स्वस्थ रिश्ता कायम नहीं हो सकता है। ऐसा रिश्ता सामान्य नहीं होगा। उस रिश्ते में रहने वाला व्यक्ति घुटन महसूस करेगा। उदासीनता एवं उपेक्षा अक्सर सीधे तौर  पर जताई गयी घृणा से भी अधिक तकलीफ देती है। संबंधों में माधुर्य बनाए रखने के लिए आवश्यक है की जिस प्रेम, विश्वास तथा स

ईश्वर और हम

हम सभी ईश्वर के बारे में बात करते हैं। बहुत से ईश्वर में विश्वास भी करते हैं। किन्तु क्या कभी भी हम इस बात पर विचार करते हैं की ईश्वर से हमारा क्या सम्बन्ध है। हममें से बहुतों के लिए ईश्वर  उस परम शक्ति का नाम है जिसने इस संसार की रचना की है। जो ऊपर कहीं आसमान में रहती है और हमारा पालन करती है। हमें जब भी किसी वास्तु की आवश्यकता होती है हम उसे पाने के लिए ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। किसी मुसीबत में होने पर मदद के लिए उसे पुकारते हैं। हमारे लिए ईश्वर हमसे पृथक एक सत्ता का नाम है। वास्तव में ईश्वर हमारा सबसे अन्तरंग मित्र है। जिस पर हम पूर्ण विश्वास कर सकते है। वह हमारा परम हितैषी है जो हमें सही मार्ग दिखाता है। वो हमसे पृथक नहीं है वरन वह हमारे ह्रदय में रहता है और वहीँ से हमें उचित एवं अनुचित का ज्ञान कराता है। वह हमारी अंतरात्मा की आवाज़ के द्वारा हमसे वार्तालाप करता है। किन्तु यह सब वह चुपचाप करता है। वह कभी भी हमारे कार्यों में दखल नहीं देता है। ईश्वर हमारे भीतर है किन्तु हम उसे बाहर खोजते हैं। ईश्वर से हमारा सम्बन्ध केवल हमारी आवश्यकताओं तक ही सीमित है। जब हमें किसी वास्तु की आव

विचारों का प्रभाव

 http://www.openbooksonline.com/group/spiritual/forum/topics/5170231:Topic:332495?commentId=5170231%3AComment%3A333868&xg_source=msg_com_gr_forum जिस प्रकार एक स्वस्थ शरीर के लिए संतुलित एवं पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है उसी प्रकार एक स्वस्थ व्यक्तित्व के लिए सात्विक एवं आशावादी विचारों का होना अति आवश्यक है। विचारों में बहुत शक्ति होती है। सात्विक एवं प्रेरणादायी विचार एक ऐसे व्यक्तित्व को जन्म देते हैं जो किसी भी विषम परिस्तिथि का सामना कर सकता है। विचारों का प्रवेश हमारे मन में दो तरह से होता है एक तो जो हम सुनते हैं  दूसरा जो हम पढ़ते हैं        हम जो भी विचार इन दो मार्गों से ग्रहण करते है वो हमारे मष्तिष्क से होते हुए हमारे अवचेतन मन में प्रवेश कर जाते हैं। यही विचार धीरे धीरे हमारे व्यक्तित्व का का हिस्सा बन जाते हैं। अतः यह अति आवश्यक है की हम विचारों के अधिग्रहण के प्रति सचेत रहें। जिस प्रकार दूषित भोजन शरीर के लिए हानिकारक हैं उसी प्रकार दूषित विचार हमारे व्यक्तित्व का नाश करते हैं।   हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का धयान रखिये कि आप क

आत्म साक्षात्कार

इस सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानव ह्रदय में अपने अस्तित्व को लेकर अनेक प्रश्न उठते रहे हैं।  'मैं कौन हूँ'    'इस धरती पर मेरे आगमन का क्या औचित्य है' ' वह कौन है जो इस सम्पूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करता है'  इन सभी प्रश्नों ने वर्षों से मानव ह्रदय को आंदोलित कर रखा है।  मनुष्य की सम्पूर्ण वैज्ञानिक  एवं आध्यात्मिक प्रगति का कारण यही प्रश्न रहे हैं। जब भी इन प्रश्नों ने किसी व्यक्ति के मन को माथा है तब वह इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठा है। उसकी इस  व्याकुलता ने उसे आध्यात्म के दुष्कर मार्ग का पथिक बना दिया है। अपने प्रश्नों का उत्तर खोजने  के लिए वह सिद्धार्थ की भांति अपना सर्वस्व त्याग कर इस दुर्गम मार्ग पर चल पड़ा है। यह सिद्धार्थ  जब अपने प्रश्नों के वन में भटकते भटकते थक जाता है तब शांत होकर एक स्थान पर बैठ जाता है। अपने आप को बाहरी दुनिया से पृथक कर वह अंतर्मुखी हो जाता है। गहन साधना के बाद वह उन प्रश्नों का उत्तर अपने भीतर पाता है जिन्हें पाने के लिए वह बाहर भटक रहा था। हर सिद्धार्थ को गौतम बनाने के लिए इस प्रक्रिया से ग