मुसीबतों से डरें नहीं तो जीत पक्की.....


 

            मुसीबतों से डरें नहीं तो जीत पक्की.....


जीवन में अक्सर विपरीत परिस्थितियां आकर हमारा रास्ता रोकने का प्रयास करती हैं। कुछ लोग इन विपरीत परिस्थितियों से हार मान कर चुपचाप बैठ जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो इन विपरीत परिस्थितियों को चुनौती देते हैं। वह बिना डरे इनके पार जाकर संघर्ष का रास्ता अपनाते हैं। 

जीत उन्हीं लोगों को मिलती है जो संघर्ष के रास्ते पर चलकर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हैं। 

गीता चौहान एक ऐसी ही मिसाल हैं। मात्र 6 साल की उम्र में वह पोलियो का शिकार हो गईं। उनकी चलने फिरने की शक्ति समाप्त हो गई। वह व्हीलचेयर पर आ गईं। परंतु उनका संघर्ष सिर्फ इतना ही नहीं था। ऐसी स्थिति में जब उन्हें अपने पिता के सहयोग की सबसे अधिक आवश्यकता थी तब उनके पिता ने उनका सहयोग करने से मना कर दिया।

गीता पढ़ना चाहती थीं। शिक्षा ग्रहण कर स्वयं को योग्य बनाना चाहती थीं। किंतु उनके पिता चाहते थे कि वह घर पर रहें। उनका मानना था कि उनकी शारीरिक अक्षमता उनकी राह का रोड़ा है। पिता ने तो साथ नहीं दिया लेकिन गीता की माँ उनकी पढ़ने की ललक को भलीभांति समझती थीं। उन्होंने गीता की पढ़ाई को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया।

गीता की पढ़ाई के रास्ते में पहले कदम पर ही रुकावट आ गई। लगभग 10 स्कूलों ने उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया। अंततः इन्हें एक सरकारी स्कूल में दाखिला मिल तो गया लेकिन वहाँ पढ़ने वाले छात्र इनके साथ बैठने को तैयार नहीं होता था। उन बच्चों के अभिभावक भी उन्हें गीता के साथ घुलने मिलने से रोकते थे। इन संघर्षों से जूझते हुए गीता ने अपने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली। 

पढ़ाई का एक पड़ाव तो पार हो गया था। अब आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज जाना था। पिता ने एक बार फिर हौसला बढ़ाने की जगह उनकी उड़ान को रोकने की कोशिश की। इस बार भी उनकी माँ ने उनका साथ दिया। गीता ने मुंबई के वारसी मुंजी कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकॉनामिक्स में दाखिला लिया। अपने आप को सक्षम बनाने के लिए गीता ने कॉलेज में रहते हुए जॉब के लिए इंटरव्यू देने शुरू किए। लेकिन कई जगहों से उन्हें केवल ना सुनने को मिली। उनके भाई के एक दोस्त ने उन्हें अपनी टेली मार्केटिंग कंपनी में जॉब दिया। 

अब गीता वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर हो गईं। गीता ने स्नातक की डिग्री हासिल की। डिग्री हासिल करने के बाद गीता को और भी अच्छी नौकरी मिल गई।

गीता की ज़िंदगी पटरी पर आ गई थी। वह खुश थीं। लेकिन उनकी इतनी सफलता भी उनके पिता के विचारों को नहीं बदल सकी। उन्होंने उन पर दबाव बनाया कि नौकरी छोड़ दें। लेकिन गीता ने तय कर लिया था कि वह जीवन में आगे बढ़ेंगी। 

गीता ने एक कठिन फैसला लिया। उन्होंने घर छोड़ दिया। कुछ दिन एक सहेली के साथ रहीं। फिर अपने लिए किराए पर घर ले लिया। 

अकेला रहना उनके लिए आसान साबित नहीं हुआ। शारीरिक चुनौतियों को झेलने के साथ साथ भावनात्मक रूप से वह कमजोर पड़ने लगीं। वह इतनी टूट गईं कि नींद की गोलियां खाकर इन्होंने आत्महत्या का प्रयास किया। दोस्तों ने सही समय पर अस्पताल पहुँचा दिया। गीता की जान बच गई। 

अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए गीता को समझ आया कि कठिनाइयों से हार मानकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की थी। अपने अनमोल जीवन को यूं ही समाप्त करने जा रही थीं। 

गीता ने अपनी नौकरी छोड़ दी। अपने दोस्तों के सहयोग से टेक्सटाइल की एक दुकान खोल ली। अच्छी चल रही थी। 




लेकिन गीता के जीवन में एक नई राह आई। इस पर चलते हुए गीता ने वह मुकाम पाया जहाँ वह कई लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गईं।

गीता के एक मित्र रवी जो व्हीलचेयर बास्केटबॉल प्लेयर हैं ने उन्हें स्पोर्ट्स में आने की सलाह दी। उन्होंने बताया कि मुंबई में शारीरिक रूप से अक्षम खिलाड़ियों के लिए कई अवसर हैं। पहले तो गीता को यह बात बहुत अजीब लगी। बाद में उन्होंने जब सही तरह से सोचा तो इसमें एक अवसर दिखाई पड़ा। 

गीता को पता चला कि मुंबई की व्हीलचेयर बास्केटबॉल टीम बन रही है। गीता ने अपना नाम भी उस टीम में लिखा लिया।

नई शुरुआत में भी कई प्रकार की समस्याएं सामने आईं। टीम तो बन गई थी पर प्रैक्टिस करने के लिए सही सुविधाओं का अभाव था। सही तरह की व्हीलचेयर्स भी नहीं थीं। ऐसे में एक रिहैब सेंटर में ने सहायता की। हाजी अली दरगाह के पीछे अक्षम लोगों का एक अस्पताल था। उसने इन लोगों को अपना ग्राउंड प्रैक्टिस करने के लिए दिया। व्हीलचेयर्स उपलब्ध कराईं। आरंभ में केवल शनिवार और इतवार को ही प्रैक्टिस होती थी। बाद में हफ्ते में 4 दिन प्रैक्टिस के मिलने लगे। 

2017 में गीता को मुंबई टीम की तरफ से हैदराबाद में आयोजित नेशनल बास्केटबॉल चैंपियनशिप में खेलने का मौका मिला। इनके पास अपनी व्हीलचेयर नहीं थी। बास्केटबॉल फेडरेशन ऑफ इंडिया टूर्नामेंट से महज 4 दिन पहले इन्हें व्हीलचेयर उपलब्ध कराई। व्हीलचेयर बास्केटबॉल में खिलाड़ी को शरीर व मस्तिष्क का संतुलन बनाकर रखना पड़ता है। व्हीलचेयर को तेजी से पुश करने के साथ-साथ फुर्ती से बॉल को पकड़ना भी होता है। 

सिर्फ 4 दिनों में गीता अपनी व्हीलचेयर पर अच्छा नियंत्रण नहीं बना पाईं थीं। खेल के दौरान यह कई बार अपनी व्हीलचेयर से गिरीं। एक बार बेहोश भी हो गईं। मुंबई की टीम ने पहली बार टूर्नामेंट में भाग ले रही थी। इनकी टीम फाइनल में तो नहीं पहुँची पर चौथा स्थान प्राप्त किया। 

सितंबर 2018 में कोयंबटूर में आयोजित नेशनल बास्केटबॉल चैंपियनशिप में गीता ने अपनी टीम को नेशनल चैंपियन बनने में मदद की। इनकी टीम ने प्रथम स्थान प्राप्त कर गोल्ड मेडल जीता। इस चैंपियनशिप में गीता का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा।

2019 में पंजाब मोहाली में आयोजित नेशनल बास्केटबॉल चैंपियनशिप में इनकी टीम ने इतिहास को दोहराया और गोल्ड मेडल जीता। 

गीता ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बास्केटबॉल प्रतियोगिताओं में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। 2018 में एशियन पारा गेम्स क्वालीफायर में तथा 2019 नवंबर में ओलंपिक के क्वालीफायर में। 

गीता का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्हीलचेयर बास्केटबॉल को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है कि स्पांसरशिप को बढ़ावा मिले जिससे बेहतर सुविधाएं प्राप्त की जा सकें। 


बास्केटबॉल के अलावा गीता रास्ट्रीय स्तर पर टेनिस भी खेलती हैं। उनका कहना है कि बास्केटबॉल एक टीम गेम है जबकी टेनिस व्यक्तिगत रूप से खेला जाता है। टेनिस खेलकर वह अपनी क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करती हैं। 

टेनिस के अलावा गीता ने वलाड में आयोजित मैराथन में भी हिस्सा लिया और व्हीलचेयर से 10 किलोमीटर की दूरी पूरी की। इसके अलावा उन्हें एडवेंचर स्पोर्ट्स में भी दिलचस्पी है। 

गीता का मानना है कि जो मेहनत करता है वह सफल होता है। यदि आप मेहनत करने को तैयार हैं और कठिनाइयों के आने घुटने नहीं टेकते हैं तो आप वह प्राप्त कर सकते हैं जो आप चाहते हैं। 




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